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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 88 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि हुए भी वन्दन करते हैं। इससे मेरा मानभंग होगा, अर्थात् मैं लघुता को प्राप्त करूंगा। (१७) पडिणीय (प्रत्यनीक) गुरु के आहार आदि ग्रहण करते समय या उनके कार्य में विक्षेप पड़े, इस प्रकार से वन्दन करना । (१८) रूट्ट ( रुष्ट ) - गुरु के क्रोधित होने पर, अथवा उनसे रुष्ट होने पर आवेश - पूर्वक वंदन करना । (१६) तज्जिय (तर्जित ) - आप न तो वन्दन करने से प्रसन्न होते हो, न नाराज, फिर तुम्हें वन्दन करने से क्या लाभ ? इस प्रकार तर्जना करते हुए वन्दन करना । (२०) सढ ( शठ ) लोकों में विश्वास पैदा करने के लिए भावरहित कपटपूर्वक वन्दन करना । (२१) हीलिय ( हीलित) हास्य करते हुए वन्दन करना । गणि, वाचक, ज्येष्ठार्य आदि का (२२) विपलियउंचिय ( विपरिकुंचित) देशकथादि ( विकथा) करना । वन्दन करते हुए (२३) दिट्ठमट्ठि (दृष्टादृष्टं ) - वन्दन करते समय अंधकार में, अर्थात् कोई देखे नहीं इस तरह सबसे पीछे जाकर बैठ जाए और आवर्त्त आदि पूर्वक वन्दन नहीं करना । (२४) सिंग (शृंग ) 'अहो - कायं - काय' आदि बोलते हुए आवर्त्त के समय हाथ ललाट के मध्य न करते हुए बाएं, दाएं भाग पर करना । (२५) कर राज्य के कर की तरह वन्दन को भी गुरु का "कर" समझकर करना । (२६) मोयण ( मोचन )- मुझे इनसे कब मुक्ति मिलेगी या कब ये मुझे मुक्त करेंगे - ऐसा विचार करते हुए वन्दन करना । (२७) आलिट्ठमणालिट्ठ (आश्लिष्टामाश्लिष्ट) आवर्त्त देते समय रजोहरण एवं मस्तक को हाथ से स्पर्श न करना । यह आश्लिष्टामाश्लिष्ट दोष चार प्रकार का होता है । * Jain Education International - - For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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