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आचारदिनकर ( खण्ड - ४ )
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
(७) कच्छ वरंगिय ( कच्छपरंगित ) - कछुए की तरह आगे-पीछे
खिसकते हुए वन्दन करना ।
(८) मत्सुवत्त ( मत्स्योद्वृत्त) एक आचार्य को वन्दन करके वहीं बैठे-बैठे ही मत्स्य की तरह शरीर पलटकर दूसरे आचार्य को
वन्दन करना ।
(६) मणसापउट्ठ (मनसाप्रद्विष्टं ) - गुरु के प्रति द्वेष रखकर
वेदिकाबद्ध - वन्दन के दोष
वन्दन करना ।
(१०) वेइयाबद्ध ( वेदिकाबद्धं)
पाँच प्रकार के होते हैं
-
१. दोनों घुटनों पर दोनों हाथ टेककर वन्दन करना । २. दोनों हाथ नीचे रखकर वन्दन करना ।
३. गोद में हाथ रखकर वन्दन करना ।
४. दायां या बायां घुटना दोनों हाथ के मध्य रखकर वन्दन
करना ।
५. दोनों पसलियों पर हाथ रखकर वन्दन करना ।
( ११ ) भयसा ( भयेन ) - यदि मैं वन्दन नहीं करूंगा, तो गुरु मुझे गच्छ से बाहर कर देंगे इस भय से वन्दन करना ।
( १२ ) भयन्त ( भजमान) - गुरु की सेवा करते हुए उन पर ताना मारना, अथवा चूँकि गुरु लोकपूज्य हैं- यह जानकर उपेक्षाभाव से उन्हें आदर देना ।
(१३) मित्ती (मैत्री) - आचार्य के साथ मैत्री (प्रीति) चाहते हुए
वन्दन करना ।
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( १४ ) गारव ( गौरवं ) - " वन्दनादि सामाचारी में मैं कुशल इसे बताने के लिए वन्दन करना । (१५) कारण विद्या (मंत्र - विद्या)
वस्त्र आदि वस्तुओं की
अभिलाषा से गुरु को वन्दन करना ।
(१६) तेणिय ( तैनिक ) - लघुता के भय से चोरी-छुपे वन्दन करना । दूसरा कोई श्रावक या साधु न देखे, इस तरह चोरी-छुपे वन्दन करना। दूसरे यदि देखेंगे, तो कहेंगे कि अहो ! ये विद्वान होते
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