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आचारदिनकर (खण्ड-४)
86 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि (२६) नोसरसि - गुरु बोलते हों, उस समय शिष्य बीच में कहे - “आपको स्मरण नहीं है, इसका अर्थ इस तरह नहीं है।'
(२७) कहं छित्ता - गुरु द्वारा दिए जा रहे व्याख्यान के बीच स्वयं के कथन द्वारा, अर्थात् 'अब मैं कथन कहूँगा' - ऐसा कहकर गुरु का व्याख्यान भंग करना।
(२८) परिसंभित्ता - अब गोचरी का समय हो गया है, इत्यादि कहकर गुरु के समक्ष बैठी पर्षदा का भंग करना, अर्थात् उन्हें उठा देना।
(२६) अणुट्ठियाएकहे - गुरु के प्रवचन के बीच अपनी विद्वता बताने हेतु शिष्य द्वारा सभा को प्रवचन देना।
(३०) संथारपायघट्टण - गुरु की शय्या, आसन आदि को पैर लगाना।
(३१) चिट्ठ - गुरु के आसन एवं शय्या पर सोना या बैठना। (३२) उच्चासण - गुरु के सम्मुख ऊँचे आसन पर बैठना। (३३) समासण - गुरु के सम्मुख समान आसन पर बैठना। - इस प्रकार गुरु सम्बन्धी ये तेंतीस आशातनाएँ बताई गई
____ अब वन्दन के बत्तीस दोष बताते हैं -
(१) अणाढिय (अनादृत) - अनादरपूर्वक वन्दन करना। यह दोष (शिष्य को) बत्तीस ही दोषों से युक्त कर देता है।
(२) थद्धं (स्तब्ध) - अविनयपूर्वक देह एवं मन से, अर्थात् द्रव्य और भाव से वंदन करना।
(३) पविद्धं (प्रवृद्ध) - वन्दन करते हुए इधर-उधर चले जाना।
(४) परिपिंडित - साथ में बैठे हुए सभी आचार्यों को एक ही विधि से वन्दन करना, अथवा घुटनों पर हाथ टेककर वन्दन करना।
(५) टोलगई (टोलगति) - टिड्डी की तरह आगे-पीछे कूदते हुए वन्दन करना।
(६) अंकुस (अंकुश) - कार्य में व्यस्त गुरु को हाथ पकड़कर अवज्ञा से खींचते हुए जबरदस्ती बैठाकर वन्दन करना।
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