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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 77 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि चैत्यस्मरण-सूत्र - जावंति चेइआइं, उड्ढे अ अहे अ तिरिअ-लोए अ। सव्वाइं ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई।। भावार्थ - ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछेलोक में जितने भी चैत्य (तीर्थंकरों के बिम्ब) हैं, उन सबको मैं यहाँ रहता हुआ वन्दन करता प. विशिष्टार्थ - ऊर्ध्वलोक - यहाँ उर्ध्वलोक का तात्पर्य कल्प, ग्रैवेयक एवं अनुत्तरविमान से है। अधोलोक - अधोलोक का तात्पर्य भुवनपति, व्यन्तरभवनों से है। तिर्यग्लोक - तिर्यग्लोक द्वारा यहाँ द्वीप, सागर, गिरि, ज्योतिष्कविमान आदि का सूचन किया गया है। साधु-स्मरण-सूत्र - जावंत के वि साहू, भरहेरवय-महाविहेदे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड-विरयाणं।। भावार्थ - __ भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में स्थित जो कोई साधु मन, वचन और काया से पाप-प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं और करते हुए का अनुमोदन नहीं करते, उनको मैं मन, वचन और काया से नमन करता हूँ। विशिष्टार्थ - भरत ऐरावत महाविदेह - भरत, ऐरावत एवं महाविदेह - ये तीनों भूमियाँ कर्मभूमि हैं। शेष क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले यौगलिक मनुष्य भोगाकांक्षा वाले होने से विरति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, इसलिए उन भूमियों को अकर्मभूमि कहा जाता है। भगवत्-प्रार्थना-सूत्र - जय वीयराय !जग-गुरु! होउ ममं तुह पभावओ भयवं ।। भव-निव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल-सिद्धी।। लोग-विरूद्ध-च्चाओ, गुरुजण-पूआ परत्थकरणं च। सुहगुरु-जोगो तव्वयण-सेवणा आभवमखंडा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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