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आचारदिनकर (खण्ड-४) 76 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि की स्तुति की गई है। अष्टापदगिरि पर भरत द्वारा नानाविध मणियों से निर्मित, चतुर्मुख चैत्य है, उसके पूर्व दिशा के द्वार में चार, दक्षिणदिशा के द्वार में आठ, पश्चिमदिशा के द्वार में दस एवं उत्तरदिशा के द्वार में दो परमात्मा की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। वे सब प्रतिमाएँ चौबीस तीर्थंकरों के वर्ण एवं उनके देहमान के अनुसार मणियों द्वारा निर्मित हैं। - यह सिद्धस्तव की व्याख्या है।
____ अब समस्त वैयावृत्त्यकर देवों के निमित्त किए जाने वाले कायोत्सर्गसूत्र की व्याख्या करते हैं। वह इस प्रकार है -
"वेयावच्चगराणं, संतिगराणं, सम्मद्दिट्ठि-समाहिगराणं करेमि काउस्सग्गं।" भावार्थ -
जिनशासन की वैयावृत्त्य, अर्थात् सेवा-शुश्रूषा करने वालों तथा उपद्रवों की शान्ति करने वालों, सम्यग्दृष्टि जीवों को समाधि प्रदान करने वाले देवों की आराधना के निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
वैयावच्चगराणं - जो साधु-साध्वी आदि को वसति एवं ज्ञान-प्राप्ति आदि में सहायक है, उनकी साधना में आने वाले विघ्नों का निवारण करने वाले हैं, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाले हैं तथा वांछित अर्थ की प्राप्ति कराने में सहायक हैं, उन्हें वैयावृत्त्यकर देव कहा जाता है।
संतिगराणं - सभी उपद्रवों का निवारण करने से उन्हें शान्तिकरा कहा गया है।
समदिट्ठि - सम्यक्त्वं को धारण करने वालों को।
समाहिगराणं - समाधि प्रदान करते हैं, इसलिए उन्हें समाधिकर कहा गया है।
तेषां - उनकी ।
आराधनार्थ करेमि काउसग्गं - आराधना के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।
अब चैत्य-स्मरण एवं साधु-स्मरण-सूत्र की व्याख्या करते हैं। वह इस प्रकार है -
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