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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 78 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ - हे वीतराग प्रभो ! हे जगत्गुरु ! तुम्हारी जय हो। हे भगवन्! आपके प्रभाव से मुझे संसार से वैराग्य और सन्मार्ग, अर्थात् मोक्षमार्ग में चलने की शक्ति की प्राप्ति हो तथा वांछित फल की सिद्धि हो। हे प्रभो ! मुझे ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो, जिससे कि मैं लोकविरूद्ध आचरण का त्याग कर सकूँ और माता-पिता, आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों के प्रति बहुमान रख सकू तथा उनकी सेवा कर सकू, साथ ही मैं दूसरों की भलाई करने में सदा तत्पर रहूँ। हे प्रभो ! मुझे सद्गुरु का समागम मिले तथा उनकी आज्ञानुसार चलने की शक्ति प्राप्त हो - ये सब बाते आपके प्रभाव से मुझे जन्म-जन्म में मिलें। विशिष्टार्थ - वीतराग - जिनका रागभाव चला गया है, उसे वीतराग कहते हैं। उपलक्षण से जिसका द्वेष भी चला गया है, उसे भी वीतराग कहते हैं। जगगुरु - स्वर्गलोक, मृत्युलोक एवं पाताललोक के जीवों के मार्गदर्शक होने से, उन्हें जगगुरु कहा गया है। सुहगुरुजोगो - हेय-उपादेय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरुओ का समागम। लोकविरूद्धच्चाओ - सामान्यतः सभी लोगों की निंदा एवं विशेष रूप से गुणिजनों की निंदा, सरलचित्त से धर्म करने वालों का उपहास, लोकपूजित जनों का अनादर, असामाजिक व्यक्तियों की संगति, देशाचार का उल्लंघन, अत्यधिक भोग और अतिदान, साधुजनों के विपत्ति में फंसने पर आनंद मानना और सामर्थ्य होने पर भी उसका प्रतिकार न करना - ये सब लोक-विरूद्ध आचार कहे गए हैं। आवश्यक अधिकार में चतुर्विंशतिस्तव नामक आवश्यक का यही स्वरूप बताया गया है। अब वन्दनक-आवश्यक का स्वरूप बताते है। वन्दनक-आवश्यक के १६८ भाग (विकल्प/स्थान) हैं, वे इस प्रकार हैं - मुँहपत्ति-प्रतिलेखना, शरीर-प्रतिलेखना और आवश्यक क्रिया के पच्चीस-पच्चीस स्थान हैं। इच्छा आदि छ: स्थान, छ: गुण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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