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की भावना का उल्लेख कर उसका चिन्तन करने को ही भावना कहा है।
१५. संलेखनाद्वार में तप के द्वारा काय एवं कषाय को कृश करना कहा है।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 51 करना । सतत अभ्यास से श्रुतज्ञान निर्मल और प्रबल हो जाता है।
संवेगरंगशाला के दूसरे मूलद्वार के दस प्रतिद्वारों के नाम एवं उनका विवेचन भगवती आराधना में समान रूप से उपलब्ध होता है, इसमें मार्गणा नामक एक अधिकार का उल्लेख ज्यादा मिलता है, जबकि संवेगरंगशाला में मार्गणा नामक द्वार का उल्लेख नहीं होने पर भी उसकी व्याख्या परगणसंक्रमणद्वार में उपलब्ध होती है।
इसी तरह संवेगरंगशाला के तीसरे मूल द्वार के नौ प्रतिद्वारों के नामों में एवं भगवती आराधना में स्थित अधिकारों के नामों में कुछ भिन्नता नजर आती है। भगवतीआराधना में गुणदोष नामक अधिकार का वर्णन किया गया है एवं दर्शन के स्थान पर प्रकाशन अधिकार का उल्लेख मिलता है, शेष सभी में समानता दृष्टिगत होती है। जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, इसमें आलोचनाद्वार के पश्चात् शय्याद्वार का वर्णन किया गया है। यहाँ गुणदोष नामक द्वार का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है तथा इसमें क्षपक को आहार का दर्शन कराने हेतु दर्शनद्वार का प्रतिपादन किया गया है। संवेगरंगशाला में चतुर्थ समाधिलाभद्वार के नौ प्रतिद्वारों का विस्तार से निरूपण किया गया है, जबकि भगवती आराधना के अन्त में आठ अधिकार मिलते हैं। इसमें अनुशिष्टि के पश्चात् प्रतिपत्ति नाम का उल्लेख नहीं मिलता है और सीधे स्मरण अधिकार का प्रतिपादन किया गया है एवं अन्य सभी नामों में समानता परिलक्षित होती है । अन्त में, इसमें भक्तप्रत्याख्यानमरण, पादपोपगमनमरण और इंगिणीमरण के स्वरूप एवं भेदों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार भगवती आराधना और संवेगरंगशाला में विषय वस्तुगत् बहुत समानता है । यद्यपि संवेगरंगशाला श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ है फिर भी इसमें भगवती आराधना के समान अचेल लिंग का प्रतिपादन है - यह बात भिन्न है कि यहाँ आचार्य जिनचन्द्रसूरि अचेलता का अर्थ अल्पचेल करते हैं। भगवती आराधना की अपेक्षा संवेगरंगशाला की विशेषता यह है कि जहाँ भगवती आराधना में समाधिमरण सम्बन्धी कथानक अति संक्षेप में वर्णित है, वहीं संवेगरंगशाला में इस कथानक का अतिविस्तार से वर्णन किया गया है। संवेगरंगशाला और भगवती आराधना में अनेक कथानक समान रूप से उल्लेखित हैं, इसकी चर्चा
कथानक सम्बन्धी अध्ययन में की है।
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