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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 35
अनुशास्ति करने का निर्देश है, इसीलिए सभी बहिर्भावों के त्याग का उपदेश दिया गया है । 14
(८) आतुरप्रत्याख्यान - प्रकीर्णक (द्वितीय) :
इसमें कुल ३४ गाथाएँ उपलब्ध हैं। इस प्रकीर्णक में निम्न आठ द्वारों में समाधिमरण का निरूपण किया गया है- 9. उपोद्घात २. अविरति प्रत्याख्यान ३. मिथ्यादुष्कृत ४. ममत्व - त्याग ५. शरीर के ममत्व के लिए उपालम्भ ६. शुभभावना ७. अरिहंतादि का स्मरण एवं ८. पापस्थानों का त्याग और अन्त में मिथ्यादुष्कृत का उल्लेख है। 15
(६) आतुरप्रत्याख्यान (तृतीय):
यह प्रकीर्णक आचार्य वीरभद्र द्वारा रचित है। इसमें कुल ७१ गाथाएँ ही समाधिमरण से सम्बन्धित होने के कारण इसे 'अन्तकाल प्रकीर्णक' भी कहा जाता है और इसे 'बृहदातुर - प्रत्याख्यान' भी कहते हैं। इसमें सर्वप्रथम मरण के तीन भेद:- १. बालमरण २. बालपण्डितसरण और ३. पण्डितमरण का विवेचन है। उसके बाद सामायिक, सर्वबाह्याभ्यान्तर - उपधि के प्रति ममत्व का त्याग, अठारह पापस्थानों का त्याग, एकमात्र आत्मा का आवलम्बन, एकत्वभावना, प्रतिक्रमण, आलोचना और क्षमापना का निरूपण है । "
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(१०) नंदनमुनिकृत आराधना :
यह प्रकीर्णक संस्कृत में है । इस प्रकीर्णक के ४० श्लोकों में नंदनमुनिकृत दुष्कृत-गर्हा, समस्त जीवों से क्षमापना शुभभावना, चतुःशरणग्रहण, पंचपरमेष्ठिनमस्कार और अनशन करने के छः प्रकारों का विवेचन है । "
(११) कुशलानुबन्धी अध्ययन :
इस कुशलानुबन्धी अध्ययन का दूसरा नाम चतुःशरण - प्रकीर्णक भी है। इसकी कुल गाथाएँ ६३ हैं। प्रथम गाथा में इस प्रकीर्णक की विषय-वस्तु के नाम वर्णित हैं, पुनः छः अधिकारों का पृथक्-पृथक् निरूपण है। इसके बाद जिनेश्वर के
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आतुर प्रत्याख्यान - पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. १६० - १६३, गाथा १-३०.
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आतुर प्रत्याख्यान - पइण्णयसुत्ताई, भाग १, पृ. ३०५-३०८, गाथा १-३४
16 आतुर प्रत्याख्यान पइण्णयसुत्ताई, भाग २, पृ. 7 नन्दन मुनि आराधित 'आराधना' पइण्णयसुत्ताई,
३२६-३३६, गाथा १४८.
भाग २, पृ. २४०-२४३, गाथा १४०.
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