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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 27
पाँचवें सर्वसंगत्याग प्रतिद्वार में द्रव्य क्षेत्र-काल और भाव से सर्वसंग का त्याग करने का उल्लेख है। साथ ही उसके प्रकारों को बताते हुए सर्वत्याग का उपदेश दिया गया है।
छटवें सम्यक्त्व प्रतिद्वार में सम्यक्त्व की उपादेयता, अनिवार्यता एवं महत्व आदि का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
सातवें प्रतिद्वार में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, आचार्य,उपाध्याय और साधु-इन छ: को मुक्ति-मार्ग के सार्थवाह तुल्य कहा गया है। इसमें उनकी भक्ति की महिमा का वर्णन है। इस सन्दर्भ में कनकरथ राजा का प्रबन्ध उपलब्ध होता है।
आठवें पंचपरमेष्ठि-नमस्कार-प्रतिद्वार में महामंत्र की अचिंत्य महिमा का अनुपम वर्णन उपलब्ध होता है। इसमें यह बताया गया है कि तीनों काल में और तीनों लोक में प्राप्त होने वाले सुख का कारण नमस्कार-मन्त्र ही है, इस पर श्रावकपुत्र का एवं श्रीमती श्राविका का प्रबन्ध है तथा पारलौकिक सुख प्रदान करने के सम्बन्ध में हुंडिका यक्ष का दृष्टान्त उपलब्ध है। नौवें सम्यग्ज्ञानोपयोग प्रतिद्वार में सम्यग्ज्ञान के स्वरूप एवं उसकी महिमा की चर्चा हुई है। इस पर यवराजर्षि का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
दसवें पंचमहाव्रतरक्षा-प्रतिद्वार में साधु को महाव्रतों की रक्षा करने हेतु उपदेश का निरूपण है तथा प्रत्येक व्रत की आराधना एवं विराधना से उत्पन्न होने वाले गुण-दोषों का वर्णन किया गया है।
ग्यारहवें प्रतिद्वार में अरिहंत आदि के चार शरणों का विस्तृत वर्णन एवं उन शरणों को स्वीकार करने का सुन्दर उपदेश प्राप्त होता है।
बारहवें दुष्कृतगर्दा प्रतिद्वार में अरिहंत आदि महापुरुषों की अवज्ञा की गर्दा का निर्देश है, इस सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से सर्व पापों की गर्दा का उल्लेख भी मिलता है। अठारह पाप-स्थानकों की एवं अन्य पापों की गर्दा, पंच-आचार की विराधना की गर्हा, पृथ्वीकायादि जीवों की भिन्न -भिन्न रूप से हुई विराधना की गर्दा का वर्णन करते हुए इसमें अनादि भवभ्रमण में अनेक जीवों की विराधना का विस्तृत वर्णन करके उसकी गर्दा करने का विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
तेरहवें सुकृतानुमोदना-प्रतिद्वार में पंचपरमेष्ठि, श्रावक एवं आसन्न भव्य जीवों के गुण तथा उपकार एवं उसकी अनुमोदना का सुन्दर विवेचन किया गया
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