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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 491
छोरों के बीच रहा हुआ जीवन हमारी निजी सम्पदा है। यदि व्यक्ति इसका सम्यक् रूप से उपयोग कर लेता है, तो मृत्यु का भय उसे विचलित नहीं करता है। समाधिभरण की साधना वस्तुतः जीवन को सार्थक बनाने का प्रयत्न है। वह निर्भयता की साधना है। आज विश्व में जितने भी तनाव हैं, सबके पीछे या तो मनुष्य की इच्छाएँ और आकांक्षाएँ हैं, या फिर मरण के वियोग का भय है। जिनचन्द्रसूरि की प्रस्तुत कृति का सार यही है कि हम अपना जीवन इस प्रकार से जीएं कि मृत्यु के समय उद्विग्नता हमारे पास भी न फटकने पाए। जीवन के सन्ध्याकाल में ऐसी उद्विग्नता की अनुभूतिमात्र वही साधक कर सकता है, जो समाधिमरण की साधना के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु भी महोत्सव बन जाती है, क्योंकि उसका ऐसा दृढ़ विश्वास होता है कि मृत्यु तो पुराने जर्जर शरीर को त्यागकर या तो नए शरीर को प्राप्त करना है, या अमरता को वरण करना है। मृत्यु से भयभीत वही होता है, जो उसके लिए पूर्व तैयारी नहीं करता है; जिस प्रकार परीक्षा से वही विद्यार्थी डरता है, जो वर्षभर अपनी तैयारी नहीं करता है। हमारी दृष्टि में प्रस्तुत कृति का लक्ष्य यदि कोई है, तो वह मनुष्य को मृत्यु के भय से विमुक्त बनाकर उसे अमरता का पथगामी बनाना है और कृतिकार अपने इस उद्देश्य में पूर्णतः सफल कहा जा सकता है।
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