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________________ 490 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री महत्वपूर्ण और मूल्यवान् होता है, अतः इस उपसंहार में हमें यह विचार करना होगा कि कृति का मूलभूत सन्देश क्या है। वह सामान्य आचार के रूप में गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का विवेचन करने के पश्चात् विशेष आराधना के रूप में समाधिमरण का जो विवेचन कर रहा है, उसके पीछे उसका मूलभूत दृष्टिकोण क्या है? प्रस्तुत कृति संवेगरंगशाला में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने गृहीधर्म और मुनिधर्म की सामान्य विवेचना के पश्चात् विशेष रूप से समाधिमरण की साधना पर अधिक बल दिया है। समाधिमरण की साधना क्यों आवश्यक है और उसकी समकालीन परिस्थतियों में क्या उपयोगिता है, इस पर विचार करके ही हम लेखक के सन्देश को सम्यक् प्रकार से समझ सकते हैं। समाधिमरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- समाधि+मरण। समाधिमरण का लक्ष्य यही है कि मृत्यु की उपस्थिति में व्यक्ति की चेतना अनुद्विग्न और शान्त रहे। शान्तिपूर्वक या समभावपूर्वक शरीर का त्याग करना ही समाधिमरण है, जिसे जैन-परम्परा में संलेखना या संथारे के रूप में जाना जाता है। प्रश्न यह होता है कि समाधिमरण की क्या उपयोगिता या सार्थकता है। जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना-यह हमारी ही क्या, सम्पूर्ण प्राणी-जगत् की मूलभूत प्रवृत्ति है। मृत्यु की अपरिहार्यता एक ऐसा तथ्य है कि जिससे कोई भी बच नहीं पाता है, किन्तु यह भी एक अनुभूत सत्य है कि सामान्य व्यक्ति जब अपनी मृत्यु को निकट देखता है, तब वह भयभीत होता है, उद्विग्न होता है और दुःखी भी होता है। मृत्यु का भय एक ऐसा भय है कि दुनिया के सारे भय उसके पीछे छूट जाते हैं। व्यक्ति कभी नहीं चाहता है कि उसका मरण हो। वह व्यक्ति संसार में रहकर भी अमरता की कामना करता है। उपनिषद् में ऋषियों ने कहा था 'मृत्योर्मामृतगमय', अर्थात् हम मृत्यु से अमरता की ओर बढ़ें, किन्तु जब तक मनुष्य के मन में मृत्यु का भय रहा हुआ है, वह अमरता का पथिक नहीं हो सकता। अन्तर में मरण का भय और बाहर अमरता का संघोष संगतिपूर्ण नहीं। व्यक्ति मृत्यु से डरता है, लेकिन यह डर एक निरर्थक और अयथार्थ है। वस्तुतः, मृत्यु से हमारा आमना-सामना कभी होता ही नहीं है, क्योंकि जब तक हम हैं, मृत्यु नहीं है, और जब मृत्यु है, तब हम नहीं हैं। मरण के इस निरर्थक भय को समाप्त करने के लिए ही समाधिमरण की साधना की जाती है। वह समभाव और शान्तिपूर्वक मृत्यु के आलिंगन का प्रयास है। जन्म और मृत्यु जीवन के दो ऐसे छोर हैं, जिन पर व्यक्ति का अधिकार नहीं है। इन दो छोरों के बीच जो जीवन की धारा बहती है; वही हमारी अपनी है। जो इस धारा का पान करके तृप्त हो जाता है, इच्छाओं और आकांक्षाओं से ऊपर उठ जाता है, वही अभय को प्राप्त होता है। जन्म और मरण जीवन के दो ऐसे छोर हैं, जो हमारे अधिकार में नहीं है किन्तु इन दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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