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14 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री है; इसीलिए इसे संवेगरंगशाला नाम दिया गया है। प्रस्तुत कृति में जहाँ एक ओर वैराग्यपूर्ण उपदेशों का और समाधिमरण की साधना-विधि का उल्लेख है, वहीं वैराग्य के भावों को सम्पुष्ट करने के लिए इस कृति में प्रत्येक प्रसंग को लेकर विस्तृत कथाएँ भी दी गई हैं।
इसमें लगभग १०० कथाएँ वर्णित हैं। वस्तुतः, इसकी सभी कथाओं का उद्देश्य व्यक्ति में वैराग्य के भावों को सम्पुष्ट करना ही है। इस प्रकार जहाँ एक
और यह ग्रन्थ समाधिमरण की साधना से सम्बंधित है, वहीं यह जैन-कथाओं का एक आकर ग्रन्थ भी है। समाधिमरण की साधना के समय समाधिमरण के साधक को वैराग्यवर्द्धक कथाएँ सुनाने की प्राचीन परम्परा रही है, इसी को लक्ष्य करके प्रस्तुत कृति में विभिन्न प्रसंगों को लेकर कथाएँ प्रस्तुत की गई हैं। समाधिमरण से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थों में, यथा-मरणसमाधि, मरणविभक्ति, भगवती-आराधना,
और आराधनापताका, आदि में इस प्रकार की वैराग्यप्रधान कथाएँ दृष्टान्तों के रूप में उल्लेखित हैं। उसी का अनुसरण प्रस्तुत कृति में भी किया गया है। यही नहीं, संवेगरंगशाला में उल्लेखित अधिकांश कथाएँ प्राचीन जैन-आगामों, आगमिक-व्याख्याओं एवं आराधना सम्बन्धी ग्रन्थों में मिलती है। यद्यपि जैन-परम्परा में आराधना से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु जिनचन्द्रसूरिकृत संवेगरंगशाला उन सब की अपेक्षा एक वृहत्काय ग्रन्थ है। इसकी प्राकृत भाषा सरल, किन्तु प्रांजल है। समास-बहुल जटिल शब्दों का इसमें विशेष प्रयोग नहीं हुआ है, फिर भी भाषा प्रवाहयुक्त है। यहाँ हमने ग्रन्थ का एक सामान्य संक्षिप्त परिचय ही दिया है। ग्रन्थ का विशेष परिचय इसकी विषयवस्तु की चर्चा के प्रसंग में ही दिया जाएगा। संवेगरंगशाला का रचनाकाल एवं संशोधनकाल :
संवेगरंगशाला के लेखक को लेकर तीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। संवेगरंगशाला के मुम्बई से प्रकाशित संस्करण की अन्तिम ग्रन्थ-प्रशस्ति में इसके दो लेखनकालों का उल्लेख है। प्रथम उल्लेख मूल प्राकृत गाथा में है। उसमें यह बताया गया है कि जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित यह ग्रन्थ उनके विनयगुण आदि से सम्पन्न शिष्य जिनदत्तगणि द्वारा ११२५ में पुस्तकारूढ़ किया गया है। इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि जिनचन्द्रसूरि द्वारा लिखित इस ग्रन्थ की उनके शिष्य जिनदत्तगणि द्वारा ११२५ में प्रतिलिपि तैयार की गई। चूंकि जिनदत्तगणि जिनचन्द्रसूरि के साक्षात् शिष्य थे, अतः ग्रन्थ के लेखनकाल और उसकी प्रथम प्रतिलिपि के काल में विशेष अन्तर नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार वि. स. ११२५ को संवेगरंगशाला की रचनाकाल और प्रथम लेखनकाल माना जा सकता
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