SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 13 की ११वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ होगा, अतः उनका जीवनकाल विक्रम की ११वीं शताब्दी के उतरार्द्ध एवं १२वीं शताब्दी के पूवार्द्ध तक माना जा सकता है। संवेगरंगशाला का सामान्य परिचय : आचार्य जिनचन्द्रसरि की कृतियों में संवेगरंगशाला का उल्लेख उपलब्ध है। प्रस्तुत कृति प्राकृत भाषा में पद्यरूप में निबद्ध है। इस कृति में १००५४ गाथाएँ हैं। इसका ग्रन्थ परिमाण जैन धर्म का मौलिक इतिहास में १८००० श्लोक परिमाण बताया गया है। वह ३२ अक्षरों के एक श्लोक के आधार पर समझना चाहिए। इस ग्रन्थ का अपर नाम आराधना-रत्न भी उल्लेखित है। जैन-साहित्य के वृहत् इतिहास में इसके कर्ता सुमतिवाचक और प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि को बताया गया है। उनके इस उल्लेख का आधार देवभद्रसूरि का पार्श्वनाथ चरित्र तथा विक्रम सं. ११५८ में रचित कथारत्नकोश है, किन्तु जैन-साहित्य के वृहत् इतिहास में उल्लेखित यह कथ्य भ्रान्त है। वस्तुतः, जब तक जैन-साहित्य के वृहत् इतिहास की रचना हुई तब तक यह ग्रन्थ प्रकाशित भी नहीं हुआ था। यही कारण है कि जैन-साहित्य का वृहत् इतिहास में यह उल्लेख भी है कि इसकी एक भी प्रति अभी तक उपलब्ध भी नहीं हुई है। वस्तुतः, इस भ्रान्ति का कारण देवभद्रसूरि के पार्श्वनाथचारित्र और कथारत्नकोश के उल्लेख ही हैं, अब यह स्पष्ट हो गया है कि जिनचन्द्रसूरि के शिष्य प्रसन्नचन्द्रसूरि की अभ्यर्थना पर सुमतिवाचक के शिष्य देवभद्रसूरि ने इसे संशोधित किया था, अतः देवभद्रसूरि को इस ग्रन्थ का संशोधक तो माना जा सकता है, किन्तु कर्ता नहीं। प्रस्तुत कृति जिनचन्द्रसूरि की रचना है, यह बात स्वयं ग्रन्थ-प्रशस्ति से ही सिद्ध हो जाती है। इसका अपर नाम आराधनारत्न है, यह बात इस आधार पर स्वीकार की जा सकती है कि संवेगरंगशाला की विषयवस्तु मुख्यतः आराधना और उसमें भी विशेष रूप से अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना से सम्बन्धित है। प्रस्तुत कृति का नामकरण जो संवेगरंगशाला किया गया है, उसका मुख्य कारण यही है कि यह ग्रन्थ संवेग या वैराग्यप्रधान है। वस्तुतः, संवेग को प्राप्त व्यक्ति जब अपने जीवन में अन्तिम आराधना, अर्थात् समाधिमरण की साधना के लिए तत्पर होता है, तो उसे किस प्रकार से यह साधना करना चाहिए और निर्यापक आचार्य को उसे किस प्रकार से उपदेश देना चाहिए, इसका विवरण इसमें होने से इसे रंगशाला कहा गया है। रंगशाला वस्तुतः नाटकशाला को कहते हैं। जीवन के इस नाटक का उपसंहार कैसे हो, यही बताना प्रस्तुत कृति का लक्ष्य • जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग-४, पृ. १४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy