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________________ 478 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री सन्दर्भ में हमने बाहय एवं आभ्यन्तर-तप के प्रकारों का संक्षेप में उल्लेख करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि क्षपक को बाह्य-तपों के द्वारा शरीर को कृश करने के साथ-साथ अपने दोषों की विशुद्धि के लिए आभ्यन्तर-तपों पर विशेष बल देना चाहिए। प्रस्तुत कृति में आभ्यन्तर तप में भी प्रमुखता आलोचना और प्रायश्चित्त को दी गई है। इस प्रसंग में संवेगरंगशाला के आधार पर प्रायश्चित्त का निर्धारण करने के लिए जैन-परम्परा में प्रचलित पाँच प्रकार के व्यवहारों की चर्चा की गई है। इस चर्चा में जिनचन्द्रसूरि ने यह बताने का प्रयास किया है कि प्रायश्चित्त देने के पाँच आधार हो सकते हैं। सर्वप्रथम जिनप्रणीत आगमों के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए, यदि आगम में उस प्रकार के अपराध और उसके प्रायश्चित्त के विधान का स्पष्ट उल्लेख न हो, अथवा आगमज्ञाता आचार्य आदि न हों, तो आगमों पर आधारित श्रुतकेवली प्रणीत अन्य ग्रन्थों, अर्थात् श्रुत को आधार बनाना चाहिए। यदि श्रुत में भी ऐसी व्यवस्था न हो, या श्रुतधर उपलब्ध न हो, तो गीतार्थ-आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करके उनकी आज्ञा के अनुसार प्रायश्चित्त दिया जाना चाहिए। यदि गीतार्थ-आचार्य की उपलब्धि भी सम्भव न हो, तो फिर पूर्व परम्परा, अर्थात् अपनी धारणा या जानकारी के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है। यहाँ धारणा से तात्पर्य अपनी गण-परम्परा को या गुरुजनों से प्राप्त परम्परा को ही धारणा कहा गया है। उपर्युक्त चारों के अभाव में जीत, अर्थात् स्वविवेक के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रस्तुत अध्याय में हमने संवेगरंगशाला के अनुसार इन पाँचों ही आधारों की चर्चा प्रस्तुत की है। इसके पश्चात् आलोचना करते समय किन-किन दोषों से बचना आवश्यक होता है, इसकी चर्चा करते हुए आलोचना के दस दोषों का उल्लेख किया गया है। क्षपक को आलोचना के माध्यम से अपने पूर्व दोषों की विशुद्धि करके सांसारिक-भोगों के प्रति आसक्ति से ऊपर उठने के लिए बारह भावनाओं या अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन की आवश्यकता होती है। जैन परम्परा में बारह भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं। अनुप्रेक्षाएँ वस्तुतः आसक्ति से विमुक्ति के सहज उपाय हैं। इस प्रकार क्षपक को आलोचना के द्वारा पूर्वकृत पापों से और अनुप्रेक्षा के द्वारा सांसारिक-भोगों की आसक्ति से ऊपर उठकर दुष्कृत की गर्दा और सुकृ त्यों की अनुमोदना करते हुए संसार के समस्त प्राणियों से निर्मल हृदय से क्षमायाचना करना होता है। क्षमायाचना के पश्चात् क्षपक को चार शरण किस प्रकार स्वीकार करना चाहिए, इसका उल्लेख संवेगरंगशाला के आधार पर प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। समाधिमरण के साधना-काल में क्षपक को अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने की आवश्यकता होती है, अतः संवेगरंगशाला में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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