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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 477 बताया गया है कि सर्वप्रथम समाधिमरण के साधक को अपने गण एवं शिष्यप-समूह से समाधिमरण की स्वीकृति प्राप्त करना होता है । इस चर्चा के प्रसंग में जिनचन्द्रसूरि ने यह बताया है कि समाधिमरण के इच्छुक साधक को किस प्रकार अपने शिष्यों को सम्बोधित करना चाहिए और उनसे अनुमति प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी प्रसंग में शिष्य भी अपने गुरु को किस प्रकार सम्बोधित करे, इसका भी उल्लेख किया गया है। यह समग्र चर्चा प्रस्तुत कृति के परगणसंक्रमण - विधि उपद्वार में भी की गई है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि साधक के कुछ संघीय दायित्व होते हैं, उनसे मुक्त होकर ही समाधिमरण किया जा सकता है। यदि साधक आचार्य के पद पर अधिष्ठित हो, तो दूसरे आचार्य, आदि की नियुक्ति करके संघ का दायित्व उन्हें सौंप देना चाहिए। शिष्यों की एवं गण की स्वीकृति मिलने के पश्चात् समाधिमरण के इच्छुक मुनि का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य निर्यापक- आचार्य की खोज करना होता है। साधक को स्पष्ट रूप से यह निर्देश है कि उसे न केवल निकट क्षेत्र में, अपितु सुदूर क्षेत्रों में भी निर्यापक- आचार्य की खोज करना चाहिए। इसी प्रसंग में निर्यापक आचार्य की योग्यता एवं गुणों की चर्चा भी यहाँ हमने संवेगरंगशाला के आधार पर प्रस्तुत कृ ति में की है। इस चर्चा के प्रसंग में जिनचन्द्रसूरि ने यह भी उल्लेख किया है कि निर्यापक- आचार्य को किसी क्षपक को स्वीकार करने के पूर्व अपने स्वगण के साधुओं की सहमति भी प्राप्त कर लेना चाहिए । यदि निर्यापक- आचार्य के स्वगण के साधुओं की अनुमति हो, तो ही निर्यापक आचार्य को उस क्षपक को अपने गण में प्रवेश देने हेतु उपसम्पदा प्रदान करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि समाधिमरण के साधक को स्वगण का त्याग करके परगण में प्रवेश के समय पुनः उपसम्पदा ग्रहण करना होता है। समाधिमरण की साधना में स्वगण का त्याग इसलिए आवश्यक माना गया है कि शिष्यों के प्रति मोह, आदि के कारण उसकी समाधिमरण की साधना में बाधा हो सकती है। वस्तुतः, शिष्यों और गण के प्रति जो आसक्ति और ममत्व का भाव है, उसके उच्छेदन के लिए यह प्रक्रिया आवश्यक मानी गई है। क्षपक के परगण के प्रवेश के समय उपसम्पदा प्रदान करने के पश्चात् प्रस्तुत अध्याय में संवेगरंगशाला के आधार पर यह बताया गया है कि निर्यापक- आचार्य क्षपक को किस प्रकार अनुशासित करे, या हितशिक्षा दे, ताकि उसका मनोबल और भाव-विशुद्धि बनी रहे । परगण में प्रवेश के पश्चात् समाधिमरण के साधक क्षपक को विशिष्ट प्रकार की तपाराधना करना होती है। ये तप आराधनाएँ मुख्य रूप से एक ओर शरीर को कृश करने के लिए की जाती हैं, तो दूसरी ओर व्यक्ति की शरीर के प्रति रही आसक्ति को तोड़ने के लिए की जाती हैं। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय के इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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