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________________ 440 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री सम्भालकर रखना और जब मैं मांगू, तब दे देना।" धान्य के दाने लेकर पहली बहू ने उनको फेंक दिया तथा दूसरी ने धान्य के दानों को उसी समय खा लिया, तीसरी ने उन्हें साड़ी के पल्लू में बांध लिया और बाद में तिजोरी में सुरक्षित रख दिया तथा चौथी ने विधिपूर्वक खेत में वपन करने के लिए उन्हें अपने पितृगृह भेज दिया। कुछ वर्षों के पश्चात् सेठ ने पूर्व की तरह अपने सम्बन्धीजनों को भोजन करवाया और उनके समक्ष अपनी पुत्रवधुओं को बुलाकर उनसे धान्य के दानों को वापस लौटाने के लिए कहा। यह सुनकर पहली और दूसरी पुत्रवधू एक-दूसरे का मुख देखने लगी। तीसरी पुत्रवधू ने तिजोरी से उन दानों को निकालकर सेठजी को दे दिया। अन्तिम चौथी पुत्रवधू ने कहा- “ वाहन को भेजकर मेरे पितृगृह से उन दानों से उत्पन्न धान्य को मंगवा लीजिए, क्योंकि आपके वचन का पालन तो उन धान्य के दानों की वृद्धि करने से ही होता है, शक्ति होने पर भी उस धान्य का विनाश करना सम्यक् ( उचित ) नहीं माना जाता।" धनसेठ ने अपने स्वजनों से पूछा - " इस विषय में मुझे क्या करना उचित होगा । " तब सभी ने कहा- "आप स्वयं अनुभवी हैं। आप जो योग्य समझें तथा करें, वही हम सभी को मान्य है । " इससे धनसेठ ने पुत्रवधुओं को अनुक्रम से घर की सफाई, घर की भोजन व्यवस्था, घर के भण्डार के संरक्षण और घर की अभिवृद्धि एवं स्वामित्व का कार्य सौंप दिया। इस प्रकार ( न्याय) करने से सेठजी की सभी ने बहुत प्रशंसा की । इस दृष्टान्त का उपनय इस प्रकार जानना चाहिए कि सेठ, अर्थात् धर्मगुरु, स्वजन अर्थात् श्रमणसंघ, पुत्रवधू अर्थात् भव्यजीव और धान्य के दाने पंच महाव्रतरूप हैं। जैसे रोहिणी पुत्रवधू ने धान्य के दानों की अभिवृद्धि कर घर का स्वामित्व प्राप्त किया, उसी प्रकार जो भव्यात्माएँ महाव्रतों को स्वीकार कर, उनका सम्यक् पालन कर उनमें वृद्धि करती हैं, वे ही प्रशंसा की पात्र होती हैं और सिद्धगति को भी प्राप्त करती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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