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________________ 418 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री स्वस्थान पर लौट गईं। दूसरे दिन स्थूलभद्र अध्ययन करने हेतु आचार्य के पास आया। तब आचार्यश्री ने 'तू अयोग्य है'- ऐसा कहकर पढ़ाने का निषेध कर दिया। इससे स्थूलभद्र ने सिंहरूप बनाने का अपना दोष जानकर आचार्यश्री से नम्र निवेदन किया- “हे भगवन्त! पुनः ऐसी गलती नहीं करूंगा। मेरे इस अपराध को क्षमा कर दीजिए।" अति आग्रह करने पर आचार्य ने उसे केवल अन्तिम चारपूर्वो के मात्र मूलपाठ का अध्ययन करवाया और शेष का अध्ययन करवाने से मना कर दिया। वे चारपूर्व बाद में विच्छेद हो गए। इसीलिए कहा गया है कि अनर्थकारक श्रुतमद करना उत्तम मुनियों के योग्य नहीं है। 'वर्तमान में मैं अकेला ही श्रुतज्ञानरूपी सूर्य हूँ'- मुनि को इस तरह का अल्पमात्र भी श्रुतमद नहीं करना चाहिए। जिनको सूत्र-अर्थ तदुभयसहित चौदहपूर्व का ज्ञान होता है, उनको भी यदि ज्ञान के उत्कर्ष या अपकर्षरूप तारतम्य सुनने में आता है, तो जिनकी मति अल्प है तथा श्रुत समृद्धि भी ऐसी विशिष्ट नहीं है, उनको श्रुतमद, अर्थात् 'मैं पण्डित हूँ'- ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत कथा में यह बताया गया है कि ज्ञान की आशातना करने से, अथवा ज्ञान का अभिमान करने से जीव सम्यक्त्व से च्युत होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। श्रुतज्ञान के मद से युक्त जीव अपने को ज्ञानी कहते हैं एवं दूसरों को मूढ़ अथवा अज्ञानी समझते हैं। संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने ज्ञान के अहंकार के सम्बन्ध में स्थूलभद्र की कथा प्रस्तुत कर श्रुतज्ञान के मद से स्थूलभद्र को दी गई शिक्षा का निरूपण किया है। प्रस्तुत कथानक हमें तीर्थोद्गालिक (गा. ७०१), आवश्यकचूर्णि (भाग २ पृ. १८७) में उपलब्ध होता है। इनके अतिरिक्त अनेक प्रबन्धों में भी स्थूलभद्र की यह कथा दृष्टिगत होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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