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________________ 416 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री स्थूलभद्र की कथा श्रुतज्ञान यदि मदरहित हो, तो वह केवलज्ञान को प्राप्त करवाता है, किन्तु श्रुत समुद्र का पारगामी भी यदि मदरहित हो, तो दीर्घकाल तक संसार में भटकता है; इसलिए श्रुतज्ञान को प्राप्त करके थोड़ा-सा भी मद नहीं करना चाहिए। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में आर्य स्थूलभद्र की निम्न कथा वर्णित है:- 798 पाटलीपुत्र नगर में नन्द नामक राजा राज्य करता था। उसके यहाँ शकडाल नामक एक मन्त्री था। उस मन्त्री को स्थूलभद्र एवं श्रीयक नामक दो पुत्र तथा यक्षा आदि सात पुत्रियाँ थीं। उनमें से सेणा, वेणा और रेणा-ये तीनों छोटी पुत्रियाँ अनुक्रम से एक, दो और तीन बार नए श्रुत को सुनते ही याद कर लेती थीं। उसी नगर में वररुचि नामक एक ब्राह्मण था, जो राजा की प्रतिदिन एक सौ आठ काव्यों से स्तुति करता था, परन्तु शकडाल मन्त्री उस ब्राह्मण की कभी प्रशंसा नहीं करता; इसलिए राजा की इच्छा होने पर भी राजा उसे दान नहीं दे पाता था। तब वररुचि ने मन्त्री की पत्नी को पुष्पादि भेंट में देकर उसे प्रसन्न किया तथा उससे सर्ववृत्तान्त कहा । वररुचि की बात सुनकर मन्त्री से उसकी पत्नी ने कहा- “ आप राजा के समक्ष वररुचि के काव्य की प्रशंसा क्यों नहीं करते?” मन्त्री ने कहा- "जो मिथ्यादृष्टि है, उसकी प्रशंसा मैं कैसे करूं ? " बार-बार पत्नी द्वारा आग्रह करने पर मन्त्री ने उसकी बात स्वीकार कर ली। अगले दिन मन्त्री ने राजा के सामने वररुचि ब्राह्मण के काव्य की प्रशंसा की । मन्त्री के मुख से उसकी प्रशंसा सुनकर राजा ने उसे एक सौ आठ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान की। इस तरह वररुचि प्रतिदिन काव्य सुनाकर राजा से एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राएँ ले जाता था। इस प्रकार धन का क्षय होते देखकर मन्त्री ने राजा से पूछा - "हे देव! आप प्रतिदिन इसे इतना दान क्यों देते हो?” राजा ने कहा - "तेरे द्वारा इसकी प्रशंसा सुनकर ही मैं इसे दान देता हूँ।” तब मन्त्री ने कहा - "हे राजन् ! यह ब्राह्मण नवीन काव्य की रचना नहीं करता, अपितु लोगों के काव्यों को सुनकर उन्हें यथावत् दोहरा देता है - ऐसा जानकर मैंने उसकी प्रशंसा की थी; लेकिन इस तरह तो अखण्डरूप से मेरी पुत्रियाँ भी बोल सकती हैं। " मन्त्री ने अपनी पुत्रियों को राजा के समक्ष अनुक्रम से एक बार दो बार और तीन बार काव्य-पद को सुनाया। इसे सुनकर वे स्वयमेव रचित रचना हो, इस 798 संवेगरंगशाला, गाथा ६७६१६८१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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