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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 397 उसके लिए कठिन हो गया। वह अपनी माता साध्वी से संयम त्यागने की बात कहने लगा। साध्वी ने उसे अनेक दृष्टान्त देकर समझाया, फिर भी नहीं मानने पर उसने कहा- “मेरे कहने से बारह वर्ष तक तू रुक जा।" क्षुल्लक मुनि ने बारह वर्ष तक फिर संयम का पालन किया। जैसे ही बारह वर्ष पूर्ण हुए, वह पुनः जाने की इच्छा व्यक्त करने लगा। ऐसा होने पर माता साध्वी ने अपनी गुरुणीजी की तरफ से बारह वर्ष और रोका, इसी तरह आचार्य के कहने पर भी वह बारह वर्ष रुका और उपाध्याय के कहने पर फिर बारह वर्ष रुका। इस प्रकार अड़तालीस वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी संसार के प्रति उसकी आसक्ति बनी रही। पूर्वकर्म का उदय जानकर माता साध्वी ने पूर्व में अपने साथ लाए हुए रत्न, कम्बल और उसके पिता के नाम की अंगूठी निकालकर उसे दी और कहा- "हे पुत्र! साकेत नगर में पुण्डरीक राजा के पास जाना, वे तेरे पिताजी के बड़े भाई हैं। तू उन्हें ये अंगूठी दिखाना, जिससे वे पहचान जाएंगे और तुझे राज्य दे देंगे।" वहाँ से निकलकर क्षुल्लकमुनि साकेत नगर पहुँचा। क्षुल्लककुमार जब राजमहल के अन्दर गया, तो वहाँ नाटक चल रहा था। वह भी वहाँ बैठकर नाटक देखने लगा। नाटक के दौरान पूरी रात्रि नाचते रहने के कारण जब नटनी थक गई, तब अक्का (नटनी के पिता) ने कहा- "बहुत गई, थोड़ी रही, थोड़ी भी जाए। थोड़े समय के कारणे, ताल में भंग न भाए।" अर्थात् अब मात्र थोड़े समय के लिए प्रमाद मत कर। ऐसा सुनकर क्षुल्लककुमार ने उस नारी को रत्नकम्बल भेंट में दिया। राजकुमार ने भी रत्नकुण्डल भेंट में दिया तथा किसी ने स्वर्णहार, किसी ने रत्नजड़ित कंगन-इस प्रकार सभी ने उसे बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट की। इन सबका रहस्य जानने के लिए राजा ने सर्वप्रथम क्षुल्लक से पूछा"हे भद्र! तूने यह वस्तु क्यों दी?" क्षुल्लक ने प्रारम्भ से अपना वृत्तान्त कह सुनाया। फिर कहने लगा- “हे राजन्! मैं यहाँ राज्य प्राप्त करने आया था, परन्तु गीत की पंक्तियाँ सुनकर मुझे सम्यक् बोध जाग्रत हुआ, जिससे मैं पुनः दीक्षा में स्थिर बना हूँ और इसलिए मैंने उसे गुरु मानकर रत्नकम्बल भेंट दिया है।" फिर उसको पहचानकर राजा ने कहा- "हे पुत्र! राज्य स्वीकार कर।" क्षुल्लक ने कहा"अब मुझे इस राज्य से क्या प्रयोजन है?" इसके बाद राजकुमार से पूछने पर उसने कहा- “मैं आपको मारकर राज्य प्राप्त करना चाहता था, परन्तु इस गीत ने मुझे अनर्थ कार्य करने से रोका तथा राज्य की मेरी इच्छा अब वैराग्य में बदल गई।" इस तरह राजा सभी के अभिप्रायों को सुनकर प्रसन्न हुआ तथा उसने उनको आज्ञा दी कि तुम सबको जो योग्य लगे, वैसा करो। अन्त में राजासहित सभी ने उसी समय क्षुल्लकमुनि के पास दीक्षा ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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