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________________ 396/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री क्षुल्लक मुनि की कथा इच्छित वस्तु की अप्राप्ति से जहाँ अरति उत्पन्न होती है, वहीं उसकी प्राप्ति होने से उस पर रति उत्पन्न होती है। इस तरह अरति और रति को संसार भावना का कारण जानकर इष्ट विषय पर रति न हो और अनिष्ट विषय पर अरति न हो-ऐसे समताभाव से आराधना करना चाहिए। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में क्षुल्लक मुनि की निम्न कथा वर्णित है :-789 साकेत नगर में पुण्डरीक नाम का राजा रहता था। उसका कण्डरीक नाम का छोटा भाई था। कण्डरीक की पत्नी का नाम यशोभद्रा था। एक दिन पुण्डरीक की दृष्टि यशोभद्रा पर पड़ी। उसे देखते ही राजा उस पर आसक्त हो • गया। राजा ने उसको प्राप्त करने की लालसा से दासी के साथ यशोभद्रा को सन्देश कहलवाया। यशोभद्रा द्वारा स्पष्टतया अस्वीकार कर देने पर भी राजा उससे अति आग्रह करने लगा। यशोभद्रा ने राजा से कहा- “क्या आपको अपने छोटे भाई की पत्नी से यह कहते हुए शर्म नहीं आती है, अन्यथा क्या आपको परलोक का भय नहीं लगता है, जो आप ऐसा पापकार्य करना चाहते हो?" कामासक्त बने हुए राजा ने अपने छोटे भाई को गुप्त रूप से मरवा दिया। पुनः, राजा यशोभद्रा के पास आकर विषय-भोगों को भोगने का आग्रह करने लगा। तभी यशोभद्रा अपने शील की सुरक्षा के लिए कुछ आभूषणों को लेकर मौका मिलते ही एक रात्रि को राजमहल से निकल गई। जंगल में भटकती हुई वह एक दिन श्रावस्ती नगरी में पहुँची। वहाँ श्रीजिनसेनसूरि की शिष्या कीर्तिमति नाम की महत्तरा अपने साध्वीमण्डल के साथ विराजित थी। यशोभद्रा साध्वी के दर्शन हेतु वहाँ गई। साध्वी द्वारा पूछने पर उसने अपना सर्ववृत्तान्त कह सुनाया। साध्वीजी ने लाभ जानकर उसे धर्मोपदेश दिया, जिससे वैराग्य पाकर उसने दीक्षा स्वीकार कर ली, परन्तु अपने गर्भ धारण की बात गुप्त रखी। कालान्तर में उसका गर्भ बढ़ता देख एक दिन साध्वी ने उससे एकान्त में इसकी सत्यता पूछी, तब उसने अपनी सत्य बात बताई। इस कारण से उसको प्रसव होने तक एक गुप्त स्थान पर रखा गया। उचित समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया, तथा उसका पालन-पोषण एक श्रावक के यहाँ होने लगा। कुछ वर्ष पश्चात् उस बालक ने आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। छोटा होने से उसका नाम क्षुल्लककुमार मुनि पड़ा। उसने साधु-जीवन की सामाचारी आदि का गहन अध्ययन किया, लेकिन यौवनावस्था में संयमजीवन का पालन 789 संवेगरंगशाला, गाथा ६२८६-६३२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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