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392/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
हरिकेशी मुनि की कथा क्रोधी मनुष्य द्वारा किए गए वाक्युद्ध को कलह का ही रूप कहा गया है। कलह धन का नाश करनेवाला है। यह दरिद्रता का स्थान है और यह अविवेक का परिणाम है। कलह से मन कलुषित होता है एवं वैर की परम्परा बढ़ती है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में हरिकेशी की कथा वर्णित है-787
मथुरा नगरी में शंख नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन उसने राज्य-सुखों को त्यागकर दीक्षा स्वीकार कर ली। बाद में उस मुनि ने सूत्रों का गहन अध्ययन किया। एक बार वे मुनि विहार करते हुए गजपुर नगर में पहुँचे। भिक्षा हेतु नगर में प्रवेश करने के लिए मुनि ने अग्नियुक्त मार्ग के पास खड़े हुए सोमदत्त पुरोहित से पूछा- "हे भद्र! क्या मैं इस रास्ते से जा सकता हूँ?" मुनि को अग्नि में जलते हुए देखने की इच्छा से सोमदत्त ने मुनि को उस मार्ग से जाने को कहा जिस मार्ग पर अग्नि थी। मुनि ईर्यापथिकी का पालन करते हुए उस मार्ग से जाने लगे। मुनि को उसी मार्ग से धीरे-धीरे जाते हुए देखकर सोमदत्त आश्चर्यचकित हुआ। 'जिस मार्ग में अग्नि थी, वह मार्ग शीतल कैसे हो गया'- ऐसा सोचते हुए विस्मित होकर वह स्वयं को धिक्कारने लगा- 'अरे! मैं पापी हूँ। मैंने पाप-कार्य किया है।' सोमदत्त फिर विचार करने लगा कि जिनके प्रभाव से अग्नि भी शीतल बन गई, ऐसे त्यागी मुनि के तो मुझे दर्शन-वन्दन करना चाहिए, अतः उसने मुनि के पास आकर अपने दुराचरण के लिए खेद प्रकट किया और पुनः-पुनः क्षमायाचना करने लगा। फिर सोमदत्त, मुनि बनकर संयमी जीवन का निरतिचारपूर्वक पालन करने लगा, किन्तु अन्त तक उसने जाति-मद को नहीं छोड़ा, अतः वह मरकर देव बना।
पूर्वभव में प्रायश्चित्त नहीं करने से वह देवभव से च्युत होकर चाण्डाल-कुल में उत्पन्न हुआ। उस (चाण्डाल) बालक का रूप-रंग अत्यन्त वीभत्स था, इसलिए मोहल्ले के बालक उसके साथ खेल नहीं खेलते थे, सभी उससे दूर रहने को कहते और इससे वह दूर खड़ा सबको देखता रहता। एक दिन जहाँ सभी बच्चे खेल रहे थे, वहाँ से श्यामवर्ण का भयंकर विषैला सर्प निकला। सभी बच्चों ने तुरन्त मिलकर उस सर्प को लाठी से मार दिया। कुछ देर पश्चात् फिर एक सर्प निकला, किन्तु विषरहित होने से उसको किसी ने नहीं मारा।
चाण्डाल इस दृश्य को दूर से देख रहा था। इससे वह विचार करने लगा कि सभी जीव अपने ही गुण अथवा दोष से शुभ और अशुभ फल को प्राप्त
संवेगरंगशाला, गाथा ६१७१-६२४१.
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