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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 391 एक दिन धर्मरुचि विहार करके उसी नगर के उद्यान में पहुंचे। वहाँ उन्होंने माली को एक ही पद को बार-बार बोलते सुना। मुनि ने उस माली से पूछा- “हे भद्र! इस अपूर्ण श्लोक को तू बार-बार क्यों बोल रहा है?" उसने मुनि को सर्ववृत्तान्त कहा। इस पर मुनि ने उस श्लोक के रहस्य को जानकर उसकी आखिरी पंक्ति इस प्रकार रची- “जो उसका घातक था, वही यहाँ आया है।" उस श्लोक को लेकर माली राजा के पास पहुँचा और उसने राजा को श्लोक सुनाया। श्लोक सुनते ही मौत के भय से राजा ने अपनी आँखें बन्द कर ली। 'यह माली राजा का अनिष्ट करनेवाला है'- ऐसा जानकर लोग उसे मारने लगे। माली चिल्लाते हुए कहने लगा- “मैंने इस श्लोक की रचना नहीं की है, इस श्लोक को एक साधु ने रचा है।" माली द्वारा उस मुनि का स्थान पूछकर राजा उस स्थान पर गया और वहाँ मुनि को वन्दन करके, धर्मोपदेश सुनकर राजा ने श्रावक-व्रत स्वीकार किया। धर्मरुचि मुनि अपने पूर्व पापाचरण का स्मरण कर उसकी आलोचना करने लगे तथा पुनः-पुनः अपने पापों का मिथ्यादुष्कृत देने लगे। इस प्रकार घोर पश्चातापपूर्वक उन्होंने सर्व कर्मों का क्षय करके द्वेषरूपी वृक्ष को मूल से उखाड़ दिया तथा अचल अनुत्तर शिव-सुख को प्राप्त किया। धर्मरुचि अणगार ने द्वेष के द्वारा चारित्र को दूषित किया था, किन्तु उन्होंने कालान्तर में संवेग प्राप्तकर प्रायश्चित्त द्वारा संयमजीवन को शुद्ध किया। इस तरह द्वेषरूपी दावानल को प्रशम्रूपी जल से शान्त करना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति द्वेष के कारण जन्म-जन्मान्तर में दुःखी होता है, किन्तु चित्त में समताभाव और समाधि के द्वारा कर्मों का क्षयकर मुक्ति प्राप्त करता है। संवेगरंगशाला का उपर्युक्त कथानक यह बताता है कि द्वेष दुःखों का भण्डार है, इसलिए मुनि को सुख के प्रति राग नहीं करना चाहिए एवं दुःख से द्वेष नहीं करना चाहिए। इसी तरह, शत्रु से द्वेष नहीं करते हुए और मित्र से राग नहीं रखते हुए समताभाव रखना चाहिए। इसी सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में धर्मरुचि अणगार की यह कथा वर्णित है। प्रस्तुत कथानक हमें ओघवृत्ति (पृ. १५६-१६०) में भी उपलब्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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