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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 379 लोभानन्दी और जिनदास की कथा संवेगरंगशाला में परिग्रह की मूछ कैसी होती है, इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि परिग्रह सर्व पापस्थानकरूपी भवन की मजबूत बुनियाद है तथा संसाररूपी गहरे कुएं की अनेक नीकों का प्रवाहरूप है। स्वर्गलोक की सम्पत्ति मिलने पर भी मनुष्य की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती है, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त होने से अपूर्ण ही रहती है। इस प्रसंग पर ग्रन्थकार ने लोभानन्दी और जिनदास की कथा का निरूपण किया है-780 पाटलीपुत्र नगर में जयसेन नामक राजा राज्य करता था। उसी नगर में कुबेर से भी अधिक धनाढ्य नन्द आदि व्यापारी और जिनदास आदि श्रावक रहते थे। एक बार उस नगर में समुद्रदत्त नाम के व्यापारी ने एक प्राचीन सरोवर को खुदवाया। सरोवर की खुदाई करते हुए मजदूरों को वहाँ मिट्टी से युक्त स्वर्ण के सिक्के मिले। अत्यधिक समय से सरोवर में दबे रहने से मलिन हुए स्वर्ण के सिक्कों को लोहा समझकर मजदूर उन्हें बेचने के लिए एक व्यापारी के पास गए। जिनदास व्यापारी ने उन सिक्कों को लोहे के सिक्के समझकर मात्र दो सिक्के लिए, परन्तु जब सिक्कों को कसौटी पर कसने लगा, तो ज्ञात हुआ कि ये सिक्के तो स्वर्ण के सिक्के हैं, अतः परिग्रह-परिमाण का उल्लंघन होने के भय से जिनदास सेठ ने उन सिक्कों को मन्दिर में अर्पित कर दिया और उनसे शेष सिक्के भी नहीं लिए। तब वे मजदूर उन सिक्कों को लेकर नन्द सेठ के पास गए। नन्द ने सिक्कों को स्वर्ण का जानकर उन्हें अधिक मूल्य देकर ले लिया और कहा- “यदि तुम्हारे पास और भी लोहे के सिक्के हों, तो किसी अन्य को मत देना, मैं तुम्हें इच्छित मूल्य दूंगा, इसलिए मुझे ही लाकर देना।" मजदूरों ने उसे स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन नन्द सेठ का मित्र अति आग्रह करके उसे अपने घर भोजन कराने ले गया। उस समय नन्द ने अपने पुत्र से कहा- "बेटा! सुनो, यदि मजदूर सिक्के लेकर आएं, तो वे जितना मूल्य मांगे, उतना देकर सिक्के ले लेना।" पुत्र ने उस बात को स्वीकार कर लिया। नन्दसेठ अपने मित्र के घर भोजन करने चला गया। इधर परमार्थ को न जानने के कारण उस पुत्र ने मजदूर के द्वारा मांगे गए मूल्य को अधिक जानकर सिक्के नहीं खरीदे, अतः वे मजदूर सिक्कों को लेकर अन्य स्थान पर चले गए। फिर इधर-उधर घूमते रहने से उन सिक्कों पर लगी मिट्टी उतरने लगी, जिससे वे सिक्के स्वर्णमय दिखने लगे। राजपुरुषों ने 780 संवेगरंगशाला, गाला ५८५८-५.०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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