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378/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री हम तीनों परस्पर मित्र हैं और हमारी तीनों की माताएँ भी परस्पर सखियाँ थीं, जिन्हें चोरों ने हरण कर लिया है।" उस वेश्या ने पुनः पूछा- "हे भद्र! क्या वर्तमान में जिनदत्त, प्रियमित्र और धनदत्त-ये तीनों व्यापारी वहीं हैं?" इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व श्रावकपुत्र ने उससे ही फिर प्रश्न पूछा- "हे भद्रे! तुम्हारा उनके साथ क्या सम्बन्ध है?" वेश्या ने कहा- "वे तीनों हमारे पतिदेव हैं और हम तीनों के भी एक-एक पुत्र है। इस प्रकार उसने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। इस पर श्रावकपुत्र ने कहा- “मैं जिनदत्त का पुत्र हूँ और मेरे ये दोनों मित्र भी प्रियमित्र और धनदत्त के पुत्र हैं।" ऐसा सुनते ही वेश्या उसे अपना पुत्र जानकर गले से आलिंगन कर खूब रोने लगी, साथ ही पुत्र भी माँ से मिलकर उसी तरह रोने लगा।
माता के सुख-दुःख का हाल पूछकर वह मित्रों को अकार्य करने से रोकने की बुद्धि से शीघ्रतापूर्वक उनके पास गया और एकान्त में जाकर उसने वह सारी बात अपने मित्रों को बताई। तब तक माता के साथ पापकार्य (अकृत्य) कर चुकने के कारण वे दोनों अत्यन्त व्याकुल हुए। तत्पश्चात् तीनों मित्रों ने धन, आदि देकर उन तीनों माताओं को वेश्याओं के हाथों से छुड़वाया, फिर उनको साथ लेकर अपने नगर की ओर चले।
समुद्रमार्ग से चलते हुए उन दोनों मित्रों ने विचार किया कि हमने महाभयंकर अकृत्य किया है, हम स्वजनों को अपना मुख किस तरह दिखाएंगे। इस तरह संक्षोभ के कारण लज्जावश दोनों मित्र परदेश में चले गए और उनकी माताएँ वहीं समुद्र में गिरकर मर गईं। मात्र अणुव्रतधारी श्रावकपुत्र ने अपनी माता को लेकर अपने नगर में प्रवेश किया। नगरजनों ने उससे सर्वघटित घटना सुनी और उसकी प्रशंसा की।
जिसने सर्व प्रकार के मैथुन का सम्यक् रूप से त्याग कर दिया है, उसने अपनी दुर्गति का द्वार बन्द कर लिया है। सत्य यह है कि अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन कर पुण्यवान् मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है और वहाँ से पुनः मनुष्यलोक में जन्म लेकर देव के समान भोग-उपभोग की सामग्री, पवित्र शरीर, विशिष्ट कुल और जाति से युक्त होता है।
इस कथा का भी मूल स्रोत ढूंढने का हमने प्रयास किया, किन्तु आगमों में इस कथा का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि ने इस कथानक का चयन किसी अन्य ग्रन्थ से किया होगा।
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