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376 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
वसुदत्त की कथा
परधन लेने की वृत्ति चित्त को दूषित कर देती है । अदत्तादान, अर्थात् चौर्यकर्म को अहित का कारण जानकर आत्महित में स्थित चित्तवाले व्यक्ति को इसका त्याग कर देना चाहिए। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में श्रावकपुत्र और दुष्टमण्डली का निम्न दृष्टान्त वर्णित है - 778
बसन्तपुर नगर में बसन्तसेना नामक एक वृद्धा रहती थी। उसने एक दिन एक बड़ा आयोजन किया, जिसमें सभी नगरजनों को भोजन करवाया। उसी नगर में एक दुष्ट मण्डली ( टोली ) भी रहती थी। उन्होंने उस वृद्धा के घर में अटूट धन-सम्पत्ति को देखा और धन लूटने की भावना से वे सब रात्रि में उसके घर में घुसे। उस मण्डली का एक सदस्य श्रावकपुत्र वसुदत्त भी था । उसने सभी को धन लूटते देखकर उनको “अरे! चोरी मत करो, चोरी मत करो" - ऐसा कहा, क्योंकि वह स्वयं भी चोरी नहीं करता था। उसकी आवाज सुनकर वृद्धा उठकर आई और उस श्रावकपुत्र की ओर देखकर सेवकों को इशारा कर बोली“इसके अतिरिक्त अन्य सबके पैरों पर निशान लगाकर छोड़ दो। "
वृद्धा के आदेशानुसार सेवकों ने सबके पैरों पर मयूरपिच्छ के निशान लगा दिए। दूसरे दिन प्रातः काल वृद्धा ने राजा को सर्ववृत्तान्त सुनाया। राजा का आदेश प्राप्तकर राजपुरुषों ने उन चोरों को ढूंढना प्रारम्भ किया। स्वच्छन्द विचरते उन चोरों के पैरों के निशान देखकर उनको पकड़ा गया एवं वसुदत्त के पैर को अनंकित देखकर उसे छोड़ दिया गया। तत्पश्चात् उन चोरों के शरीर का छेदन - भेदन कर, उनको अनेक पीड़ाएँ देकर, मरण के शरण कर दिया गया।
तीसरे चौर्यकर्म नामक पापस्थानक में आसक्त जीव इस जन्म में भी बन्धन, आदि कष्टों को एवं परलोक में दुर्गति को प्राप्त होता है, किन्तु जो इसका परित्याग कर देता है, वह अपने शुद्ध स्वभाव से ही उसी समूह में रहते हुए भी वसुदत्त के समान कभी - कभी दुःख को प्राप्त नहीं करता है।
इस तरह अदत्तादान में प्रवृत्ति करनेवाले और उसका प्रत्याख्यान करनेवाले जीवों के अशुभ तथा शुभ फल को देखकर उसका परित्याग कर देना चाहिए। अदत्तादान (चोरी) करनेवाला प्राणी वध भी करता है और झूठ भी बोलता है, इससे वह इसी जन्म में अनेक प्रकार के दुःखों को प्राप्त करता है, यहाँ तक कि मृत्युदण्ड को भी प्राप्त करता है ! - पुनः, चोरी करने के पाप से जीव
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संवेगरंगशाला, गाथा ५७८२-५७६०.
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