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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 375
ब्रीही, आदि हैं। उनके द्वारा ही यज्ञ करना - ऐसा गुरुजी ने कहा है ।" इस वचन को पर्वत ने नहीं माना और दोनों में वाद होने लगा। इससे यह निर्णय हुआ कि जो वाद में हार जाएगा, उसकी जीभ का छेदन किया जाएगा। ऐसी प्रतिज्ञा कर वे दोनों वसु राजा के पास गए। नारद को सत्यवादी जानकर पर्वत की माता भयभीत हुई। वह राजा के पास गई। गुरुमाता को आते देखकर राजा ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया, फिर गुरुमाता ने एकान्त में वसु राजा को नारद और पर्वत का सारा वृत्तान्त बताया। वसु राजा ने कहा- "हे माता! आप ही कहो । इसमें मुझे क्या करना चाहिए ।" उसने कहा- “मेरे पुत्र की जीत हो, वैसा करो। "
दूसरे दिन दोनों राजा के सामने आए। राजा को सत्य बात सुनाकर नारद ने कहा- "हे राजन्! आप इस विषय में धर्म की तराजू हो। इसलिए कहो 'अजेहिं जट्ठव्वं'- इसकी गुरुजी ने किस तरह व्याख्या की थी?” राजा ने कहा"हे भद्र! टजेहिं, अर्थात् बकरे के द्वारा, जट्ठव्वं, अर्थात् यज्ञ करना चाहिए- ऐसा कहा है।” ऐसा बोलते ही कुपित हुई कुलदेवी ने उसे स्फटिक के सिंहासन से नीचे गिराकर मार दिया। पर्वत असत्यवादी है- ऐसा मानकर लोगों ने उसे धिक्कारा । वसुराजा यहाँ से मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। सत्यवादी के रूप में नारद का सत्कार हुआ, उसकी चन्द्र समान उज्ज्वल कीर्ति फैली और उसने मृत्यु के बाद देवलोक की सुख सम्पत्ति प्राप्त की ।
इस तरह मृषावचन स्वर्ग और मोक्ष के दरवाजे को बन्द करनेवाली जंजीर है - ऐसा समझकर सत्य भाषण करें। जो वचन कीर्तिकारी एवं गुणों को प्रकट करने वाला हो, शिष्ट पुरुषों को इष्ट और मधुर हो, स्व और पर पीड़ा का नाशक हो, बुद्धिपूर्वक विचार किया हुआ हो, प्रकृति से सौम्य, शीतल, निष्पाप और कार्य सिद्ध करनेवाला हो, उसी वचन को सत्य जानना चाहिए ।
संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथानक के माध्यम से यह बताया गया है कि असत्य भाषण करनेवाले दुर्गति को प्राप्त होते हैं एवं सत्य भाषण करनेवाले सदैव सद्गति को प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत प्रसंग पर संवेगरंगशाला में वसुराजा और नारद की कथा दी गई है। प्रस्तुत कथानक के संकेत हमें जीवाजीवाभिगम (cE), जीवाजीवाभिगमवृत्ति (पृ. १२१), भक्तपरिज्ञा (१०१), आदि में भी उपलब्ध होता
है।
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