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350 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
आर्य महागिरि का प्रबन्ध जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी जिसने जिनकल्प का परिकर्म, अर्थात् आचरण किया था, उन आर्य महागिरि का प्रबन्ध संवेगरंगशाला में इस प्रकार वर्णित है-765
कुसुमपुर नगर में नन्द राजा का शकडाल नामक एक मन्त्री था। उस मन्त्री का अत्यन्त विलासी स्थूलभद्र नाम का पुत्र था। जब शकडाल जहर खाकर मृत्यु को प्राप्त हो गया, तब महासात्विक स्थूलभद्र को राजा ने कहा- "हे धीर! तुम्हारे पिता के इस मन्त्री-पद को अब तुम स्वीकार करो", किन्तु स्थूलभद्र ने गृहवास को मधुर, लेकिन परिणाम से अहितकर जानकर इन्द्रिय-विषयासक्ति को छोड़कर संयम को स्वीकार कर लिया। आचार्य संभूतविजय के पास सूत्र-अर्थ का गहन अभ्यास करके कालान्तर में वह अनुयोगाचार्य बना। स्थूलभद्रमुनि ने प्रथम चातुर्मास पूर्व परिचित कोशा वेश्या के घर किया, जिससे आचार्यश्री ने उत्तम चार मुनियों के समक्ष उनकी अतिदुष्कर, अतिदुष्करकारी-ऐसा कहकर प्रशंसा की। कोशा वेश्या ने भी भक्तिपूर्वक उनके संयम की प्रशंसा की।
स्थूलभद्र महामुनि के आर्य महागिरि तथा आर्यसुहस्ति नाम के दो शिष्य थे। वे भी कामविजेता, सर्व अनुयोगों के समर्थ अभ्यासी थे। आर्य महागिरि ने आर्य सुहस्ति को अपना गण, अर्थात् समुदाय सौंपकर 'जिनकल्प का विच्छेद हुआ है'-ऐसा जानते हुए भी उसके अनुरूप साधना प्रारम्भ कर दी।
एक समय आर्यमहागिरि विहार करते हुए पाटलीपुत्र नगर में पधारे। वहाँ उन्होंने भिक्षा हेतु नगर में प्रवेश किया। तब वसुभूति सेठ अपने स्वजनों को बोध कराने हेतु आर्यसुहस्तिसूरि को अपने घर ले गया। उसी घर पर आर्य महागिरि भी भिक्षा के लिए पधारे। आर्यमहागिरि को देखकर आर्यसुहस्ति भावपूर्वक वन्दन करने हेतु खड़े हुए। तब सेठ ने पूछा- "क्या आपसे भी बड़े कोई आचार्य हैं, जिसके कारण आप विनय हेतु खड़े हुए।" आर्यसुहस्तिसूरि ने कहा- “जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी ये उसकी साधना करते हैं और गृहस्थ द्वारा फेंकने योग्य आहार-पानी को ही ग्रहण करते हैं। मोह-ममता से रहित होकर प्रतिपल ध्यान में स्थिर रहते हैं तथा शून्य गृहों में विविध आसनों एवं मुद्राओं की साधना करते हुए रहते हैं। इस प्रकार आर्यमहागिरि के गुणों की प्रशंसा करके, वसुभूति के स्वजनों को धर्म में स्थिर कर, आर्यसुहस्ति पुनः उपाश्रय में लौटे।
765 संवेगरंगशाला, गाथा ३९१३-३६४६.
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