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________________ 344 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री लम्बे समय के पश्चात् दोनों मुनि आचार्य से आज्ञा लेकर अकेले विचरण करने लगे। अनियत विचरण करते हुए जयसुन्दरमुनि एक समय अहिछत्रा नगरी पहुँचे। इधर वह पापिनी सोमश्री अपने दुश्चरित्र को छिपाने के लिए जयसुन्दरमुनि को चारित्र से पतित करना चाहती थी। इसी कारण से उसने भिक्षा हेतु मुनि को घर बुलाकर विनयपूर्वक नमस्कार किया और उनसे कहा- "हे प्राणनाथ! आप इस दुष्कर चारित्र का त्याग करें। आपकी दीक्षा की बात सुनकर मुझे वज्र के प्रहार से भी अधिक दुःख हुआ और आज तक मैं मात्र आपके दर्शन की आशा में ही जीवित हूँ। अब मेरा जीना या मरना आपके हाथ है। आपको जो रुचिकर हो, वह करो।” मुनि को आचार्य के वचन याद आए। इस धर्मसंकट से बचने के लिए मुझे कुछ उपाय करना होगा- ऐसा सोचकर मुनि ने कहा- “हे भद्रे! एक क्षण तुम घर के बाहर खड़ी रहो।" ऐसा कहकर मुनि अन्दर गए। संवेगयुक्त भावों से अनशन स्वीकार कर मरण हेतु गले में फांसी लगाकर लटक गए और मरकर वे अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। इधर नगर में यह बात फैल गई कि सोमश्री ने साधु को मार दिया है। इससे पिता ने उसे अपमानित कर घर से निकाल दिया। अत्यन्त स्नेहवश विजयश्री भी उसके साथ चली गई। प्रसूति-दोष के कारण सोमश्री मार्ग में ही मर गई। तत्पश्चात् विजयश्री तापसी-दीक्षा स्वीकार कर एक आश्रम में रहने लगी। सोमदत्त मुनि विहार करते हुए उसी स्थान पर आए। पैर में तीक्ष्ण कांटा लग जाने से वे आगे चलने में असमर्थता का अनुभव करने लगे और वहीं आश्रम के पास बैठ गए। वहाँ विजयश्री मुनि को देखते ही पहचान गई। मुनि को देख उसके मन में काम-वासना जाग्रत हो गई। वासना के वशीभूत हो वह मुनि को बार-बार क्षोभित करने लगी। उस पापिनी से क्षोभित हुए मुनि को आचार्य के वचन स्मरण में आए। यद्यपि मुनि एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ थे, परन्तु स्त्री द्वारा उपसर्ग जानकर मुनि ने प्राणघात करने का विचार किया। अन्य कोई उपाय नहीं होने पर मुनि ने गृद्धपृष्ठमरण को श्रेय माना। वहाँ से मुनि धीरे-धीरे चलकर रणभूमि में गए और वहां शवों के बीच शव के समान बनकर लेट गए। वहाँ हिंसक पक्षियों द्वारा मुनि के शरीर का भक्षण किया गया। इस प्रकार मुनि भयंकर वेदना को सहन करते हुए समाधिमरण को प्राप्त हुए एवं जयन्त-विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। संवेगरंगशाला में इस कथा के माध्यम से जयसुन्दर और सोमदत्त द्वारा ग्रहण किए गए उत्कृष्ट मरण का उल्लेख किया है। प्रस्तुत कथा हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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