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342 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
कहा- "अहो महाभाग! तुम परिश्रमी अवश्य हो, लेकिन चक्षुरहित होने के कारण तुम्हें यह कला किस तरह सिखाऊँ?" वह कुमार पुनः कला सिखाने के लिए अति आग्रह करने लगा तथा उसके बार-बार कहने पर उपाध्याय ने उसे धनुर्विद्या का अध्ययन कराया। तीव्र बुद्धि के बल से उसने शब्दवेधी बाण चलाने की कला सीखी। इस तरह दोनों ही पुत्र कलाओं में अति कुशल बनें।
एक समय शत्रु-सेना ने वसन्तपुर राज्य को चारों ओर से घेर लिया, जिससे छोटा पुत्र शत्रु-सेना को जीतने हेतु पिता से आज्ञा लेकर युद्ध के लिए जाने लगा, लेकिन "बड़े भाई के रहते छोटा भाई कैसे जा सकता है"- ऐसा कहकर वह अन्धा पुत्र क्रोधित हुआ। राजा ने कहा- "बुद्धि एवं भुजाओं से बलवान् होते हुए भी चक्षुरहित होने से तुम्हारा युद्ध में जाना योग्य नहीं है।" राजा ने अनेक प्रकार से समझाकर अन्धे पुत्र को रोकना चाहा, परन्तु वह राजा के वचनों को मान न देकर, मजबूत बख्तर से शरीर को सजाकर, हाथी पर बैठकर शीघ्रतापूर्वक नगर से निकल गया।
युद्धभूमि में उसे जिस ओर से शब्द सुनाई देता, उसी ओर वह बाण चलाने लगता। इससे शत्रुओं ने उसे शब्दवेधी जानकर मौन धारण कर लिया। अन्धे पुत्र द्वारा बाण के प्रहार को रुकते हुए देखकर शत्रुओं ने मौनपूर्वक सर्व दिशाओं से उस पर प्रहार किया। बड़े भाई पर प्रहार होते देख छोटे भाई ने उसे बचाने का प्रयत्न किया।
सर्व सम्पति को त्याग करनेवाला, परीषहों एवं उपसगों को सहन करनेवाला मुनि भी यदि सम्यक्त्व से रहित हो, तो अन्धे पुत्र की तरह शत्रु को जीत नहीं सकता है। इस कारण आराधक को सर्वप्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण कर फिर निरतिचारपूर्वक दर्शन-प्रतिमा को स्वीकार करना चाहिए। उसके पश्चात् ही सदाचार का पालन फलप्रद होता है।
. प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ।
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