SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 341 यह सुनकर उन पुरुषों ने विविध शस्त्रों से मुनि पर प्रहार किए। मुनि विचार करने लगे- "हे जीव! इन पर मुझे जरा भी द्वेष नहीं रखना चाहिए। सभी जीव अपने-अपने कर्मों का फल प्राप्त करते हैं। हे जीवात्मा! तुझे इन तीक्ष्ण कष्टों को सहन करना है। जिस तरह भगवान् महावीर, आदि ने दुःखों को समताभाव से सहन किया था, वैसा ही तुझे भी करना है। यदि तूने अपनी उपधि तथा गुरुकुलवास के प्रति राग का त्याग किया है, तो इस नाशवान् शरीर पर मोह किसलिए करता है।"- ऐसा विचारकर वे मुनि शुभध्यान में निमग्न हुए। उन पुरुषों ने तलवार की तीक्ष्ण धार से मुनि पर तेज प्रहार कर उन्हें मार दिया। मरणोपरान्त मुनि सर्वार्थसिद्ध में देवरूप में उत्पन्न हुए। इस प्रकार के त्यागी और निर्मल भावों से युक्त मुनि सहजता से मोक्षरूपी सुख को प्राप्त करते हैं। सहस्त्रमल्ल की यह कथा जिस रूप में यहाँ प्रस्तुत की गई है, उस रूप में तो हमें उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु दिगम्बर, श्वेताम्बर-विवाद के सम्बन्ध में सहस्त्रमल्ल की कथा मिलती है, परन्तु इस कथा में और उस कथा में नाम को छोड़कर अन्य कोई समरूपता परिलक्षित नहीं होती है। मिथ्यात्व के विषय पर एक अन्धे पुत्र की कथा जो व्यक्ति उत्कृष्ट से संयम का पालन करता हो और अनुकूल एवं प्रतिकूल सर्व परीषहों एवं उपसों को सहन करता हो, लेकिन उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं हो, तो वह मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस विषय पर संवेगरंगशाला में एक अन्धे पुत्र की कथा वर्णित है, वह कथा इस प्रकार है - वसन्तपुर नगर में रिपुमर्दन नामक राजा राज्य करता था। उसका प्रथम पुत्र अन्धा और दूसरा पुत्र दिव्यचक्षुवाला था। राजा ने उन दोनों को अध्ययन के लिए उपाध्याय को सौंपा। उपाध्याय अन्धे पुत्र को धनुर्वेद-विद्या को छोड़कर संगीत, वांजित्र, आदि अन्य सर्व कलाएँ सिखाने लगे, लेकिन दूसरे पुत्र को धनुर्वेद सहित सभी कलाओं की शिक्षा देने लगे। अन्धे पुत्र ने इसे अपना अपमान मानकर उपाध्याय से कहा- "मुझे शस्त्रकला, आदि क्यों नहीं सिखाते हो?" उपाध्याय ने अत्यन्त मधुर वचन से उसे 76"सेवेगरंगशाला, गाथा २७१७-२७३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy