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________________ 336 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री इस प्रकार प्रतिबोधित हुआ राजा आचार्य को वन्दनकर राजमहल में आया और मण्डूककुमार को राज्य देकर तुरन्त गुरु महाराज के पास आकर मुनि-दीक्षा स्वीकार की। तत्पश्चात् प्रतिदिन धर्म-क्रिया करते हुए उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, फिर दुष्कर तप करते हुए अप्रतिबद्धविहार करने लगा। एक समय आचार्यश्री ने पन्थक आदि पाँच सौ मनियों के गरु सेलक मुनि को सूरिपद पर स्थापित किया और स्वयं एक हजार मुनियों के परिवार सहित विचरण करने लगे। कालान्तर में आचार्यश्री एक हजार मुनियों सहित पुण्डरीक-गिरि पर अनशन करके मोक्ष गए। इधर सेलकसूरि द्वारा की गई अत्यन्त उत्कृष्ट तप-साधना से उनका शरीर अतिकृश हो गया। एकदा सेलकसूरि व्याधिग्रसित कृशकाया से अप्रतिबद्ध विहार करते हुए सेलकपुर नगर पहुँचे। वहाँ उन्होंने मृगवन उद्यान में स्थिरता की तथा प्रीति के बन्धन से युक्त मण्डूक राजा ने सेलकसूरिजी को वन्दन किया और धर्मकथा श्रवणकर श्रावकव्रत ग्रहण किया। मण्डूक राजा सूरिजी के शरीर को अत्यन्त दुर्बल एवं रोगग्रस्त देखकर निवेदन करने लगा- "हे भगवन्त! यदि आज्ञा हो, तो मैं बिना निमित्त तैयार किया हुआ निर्दोष आहार और औषधि से आपश्री की चिकित्सा करूँ?" सेलकसूरिजी ने बिना निमित्त का आहार एवं औषधि जानकर उपचार करवाना स्वीकार किया। प्रतिदिन औषध का सेवन करने से सेलकसूरिजी का शरीर स्वस्थ हो गया, लेकिन वे प्रबल मादक रसयुक्त आहार में रागी हो गए। इससे साधु के गुणों से विमुख बनकर वे वहीं स्थिर होकर रहने लगे तथा पन्थक के सिवाय शेष साधु उन्हें छोड़कर चले गए। एक बार रात्रि में गाढ़ निद्रा में सोए सेलकसूरिजी से चातुर्मासिक-क्षमायाचना करने के लिए किसी ने उनके मस्तक से पादस्पर्श किया। इससे वे जाग गए और क्रोधित होकर कहने लगा- “कौन दुराचारी मस्तक से मेरे पैरों को घर्षण कर रहा है।" मुनि ने कहा- "हे भगवन्! मैं पंथक नाम का साधु चातुर्मासिक-क्षमायाचना करता हूँ। आप मुझे एक बार क्षमा कर दें, फिर मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा।" शिष्य के वचनों को सुनकर सेलकसूरि संवेग को प्राप्तकर इस प्रकार कहने लगे- "हे पंथक! श्रसगारव, आदि के कारण मुझ विपथगामी को तूने जाग्रत किया है। अब मुझे यहाँ पर स्थिरवास के सुख से क्या प्रयोजन है? अब मुझे विहार करना है।" इस प्रकार सेलकसूरि वहाँ से विहारकर अप्रतिबद्ध विचरण करने लगे। उन्हें अनियतविहार करते देखकर उनके सारे शिष्य भी पुनः आकर मिल गए। कालान्तर में कर्म-रज का सम्पूर्ण उन्मूलन करने हेतु उन्होंने शत्रुजय-गिरि पर संथारा ग्रहण कर अनुत्तर मोक्ष-सुख को प्राप्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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