SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 335 अनशन ग्रहण कर सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म की आराधना करना चाहिए। इससे ही मैं शीघ्र अपना कार्य सिद्ध कर सकूँगा।' ऐसा विचार कर भील ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर निष्कलंक सम्यक्त्व को प्राप्त किया और अन्त में मरकर सौधर्म-देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह कुरुचन्द्र की कथा से यह ज्ञात होता है कि दूसरों के दबाव से भी साधुओं को दिया हुआ वसतिदान परभव में उसके कल्याण का कारण बनता संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथानक के द्वारा वसतिदान का महत्व बताते हुए यह कहा गया है - सुमनोज्ञ-आसन, शय्या तथा आहार के दान से महान् लाभ मिलता है। इसके द्वारा साधु ध्यान-साधना में निराकुल बनता है। यह भी बताया गया है कि जिसके आश्रम में मुनि मुहूर्त्तमात्र भी विश्राम करता है, वह पुण्यशाली कृतकृत्य बन जाता है। इसी सन्दर्भ में कुरुचन्द्र की इस कथा का निरूपण किया गया है। संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिपादित प्रस्तुत कथानक हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. १६६-१७०) एवं आवश्यकवृत्ति (पृ. २२१) में उपलब्ध होता है। सेलकसूरि की कथा संवेगरंगशाला में स्थिरवास और नियतविहार- इन दोनों से क्रमशः प्राप्त होने वाले गुण-दोषों को स्पष्ट करने की दृष्टि से सेलकसूरि का दृष्टान्त उल्लेखित है। वह इस प्रकार है-758 सेलकपुर नाम के नगर में सेलक नाम का राजा रहता था। उसकी पद्मावती नाम की रानी थी और मण्डूक नाम का पुत्र था। थावच्यापुत्र सूरि के चरणों में राजा ने जैनधर्म स्वीकार किया। एक बार शुकसूरि विहार करते हुए उसी नगर में पधारे तथा मृगवन नामक उद्यान में ठहरे। आचार्यश्री का आगमन जानकर राजा अपने परिवारसहित उनके वन्दनार्थ आया तथा गुरु-चरणों में नमस्कार कर, हर्षपूर्वक धर्मोपदेश सुनने के लिए बैठा। आचार्यश्री ने भी उसे योग्य जानकर संसार के विषयों के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो- ऐसी धर्मकथा कही। 758 संवेगरंगशाला, गाथा २१५१-२१८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy