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________________ 326/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री नमि राजर्षि की कथा जो मोह ममता से रहित उत्तम संयमी साधक श्रेष्ठ समाधि में लीन रहते हैं, वे सर्व पापस्थानों से मुक्त होते हैं। उनका मन मित्र, पुत्र, स्वजन, धन आदि का विनाश होते देखकर भी मेरुपर्वत के समान अडिग रहता है। इस विषय में संवेगरंगशाला में नमि राजर्षि की कथा वर्णित है। वह कथा इस प्रकार है। 754 धन-धान्य से समृद्ध एवं रमणीय विदेहदेश में मिथिला नामक नगरी थी। उस नगर में न्यायाप्रेय एवं विनय, आदि विशिष्ट गुणों से युक्त नमि नामक राजा राज्य करता था। किसी समय राजा को महाभयंकर दाहज्वर हुआ, जिसके कारण उसके शरीर में असह्य पीड़ा होने लगी। तुरन्त राजकीय वैद्यों को बुलवाया गया। वैद्यों ने अनेक औषधियों का प्रयोग किया तथा लेप लगाया, किन्तु दाह लेशमात्र भी शान्त नहीं हुआ। तब लोक में प्रसिद्ध मान्त्रिकों एवं तान्त्रिकों को बुलवाया गया, परन्तु वे भी रोग को शान्त करने में असफल रहे। अन्त में, दाहज्वर से पीड़ित राजा के शरीर पर चन्दन का लेप लगाया गया। इससे राजा को आंशिक आराम मिला। पति के दुःख से दुःखित सभी रानियाँ एक साथ सतत् चन्दन घीसने लगीं, फलतः उनके स्वर्णकंकणों की टकराहट से उत्पन्न हुई रण - झणकार की ध्वनि सर्वत्र फैल गई। उस ध्वनि को सुनकर राजा को अत्यधिक वेदना होने लगी। राजा ने पूछा- “ अहो! यह अत्यन्त अशाताकारी ध्वनि कहाँ से आ रही है?" राजा की पीड़ा को जानकर रानियों ने एक-एक कंकण रखकर अन्य सभी कंकणों को निकाल दिया। एक क्षण पश्चात् पुनः राजा ने पूछा- “अब वह आवाज क्यों नहीं सुनाई दे रही है?” लोगों ने कहा - "केवल एक ही कंकण शेष होने से परस्पर टकराहट के अभाव में वह आवाज नहीं आ रही है।" इससे अति प्रसन्न होते हुए राजा ने मन में विचार किया- “इस अकेले कंकण में कोई आवाज नहीं है। अकेले में ही शान्ति है। निश्चय से अकेले जीव को किसी प्रकार की अशान्ति नहीं होती है। व्यक्ति जितनी मात्रा में परवस्तु के संग का त्याग करेगा, उतने ही परिमाण में उसको शान्ति मिलेगी, अतः मैं भी संग छोड़कर निःसंग बनूं।” इस तरह संसार के प्रति संवेग प्राप्त होने पर राजा को जातिस्मरण- ज्ञान प्रकट हुआ, साथ ही वेदनीयकर्म के क्षयोपशम से दाहज्वर भी दूर हो गया। राजा 754 संवेगरंगशाला, गाथा १७१२-१७६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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