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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 325
किया है।" ऐसा कहने से अभयकुमार ने 'यह चोर है'- ऐसा निर्णय करके चाण्डाल को पकड़वाकर पूछा- "तुमने बाग में से आम की चोरी किस प्रकार की।" उसने कहा- “मैंने विद्या के बल से आम की चोरी की है।" फिर अभयकुमार ने शुरू से अन्त तक का सारा वृत्तान्त श्रेणिक राजा को बता दिया। राजा ने कहा- “यदि वह अपनी विद्या मुझे सिखाता हो, तो उसे छोड़ दो, अन्यथा उसे खत्म कर दो।" चाण्डाल ने विद्या देना स्वीकार किया।
राजा सिंहासन पर बैठे-बैठे विद्या का अभ्यास करने लगा। बार-बार प्रयत्न करने पर भी विद्या प्राप्त नहीं होने से राजा चाण्डाल को उपालम्भ देने लगा। तब अभयकुमार ने कहा- "इसमें इसका कोई दोष नहीं है। विद्या विनय से प्राप्त की जाती है, अतः आप नीचे आसन पर बैठो एवं उसे ऊँचे आसन पर बैठाओ, फिर विद्या की साधना करो।" राजा ने उसी प्रकार अपना आसन परिवर्तन किया और उन्हें विद्या प्राप्त हो गई। फिर चाण्डाल का सत्कारादि करके उसे छोड़ दिया गया। इस कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि विद्या विनय से प्राप्त होती है।
संवेगरंगशाला मे विनय को लक्ष्मी, सुख, धर्म और मोक्ष का मूल कहा गया है, साथ ही अविनीत द्वारा किए गए प्रयत्न निरर्थक होते हैं एवं विनीत द्वारा किए गए अनुष्ठान सार्थक होते हैं-यह प्रतिपादित किया गया है। विनयरहित को दी गई विद्या भी निरर्थक हो जाती है, क्योंकि विद्या का फल ही विनय है। प्रस्तुत कति में अविनय से विद्या का नाश कैसे होता है, इसका निरूपण करते हुए इस सन्दर्भ में श्रेणिक राजा की कथा कही गई है। संवेगरंगशाला के कर्ता आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रतिपादित प्रस्तुत कथानक हमें दशवैकालिकचूर्णि (पृ. ४४), स्थानांगवृत्ति (पृ. २५६) में भी उपलब्ध होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार ने इन कथानकों को प्राचीन ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है।
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