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________________ 322/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री रानी ने एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया तथा उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा। मन्त्री ने उसे कलाचार्य के पास पढ़ने भेजा। वहाँ अन्य राजपुत्रों के साथ रहते हुए उसने विविध कलाएँ सीखीं, परन्तु श्रीमाली आदि अन्य बाईस पुत्र कुछ पढ़ते नहीं थे तथा उपाध्याय के अल्प मारने पर भी रोते और माता से कहते कि उन्होंने हमें इस तरह से मारा है। अतः, क्रोधित बनी हुई रानियों ने उपाध्याय का कठोर वचनों द्वारा तिरस्कार किया, जिससे उपाध्याय ने उन सभी पुत्रों की उपेक्षा कर दी। फलतः, अन्य राजपुत्र अत्यन्त मूर्ख रहे, परन्तु राजा अपने मन में अपने सभी पुत्रों को अत्यन्त कुशल मानता रहा। एक समय मथुरा नगरी के पर्वतराज नामक राजा ने अपनी पुत्री से कहा- "तुझे जो भी वर पसन्द हो, वह मुझे बता देना।" पुत्री ने कहा- "इन्द्रदत्त राजा के पुत्र कला कुशल एवं अच्छे रूपवाले सुने जाते हैं, आप कहो तो वहीं जाकर राधावेध द्वारा उनकी परीक्षा लेकर उनमें से किसी एक को वरण करूँ।" पिता की आज्ञा पाकर वह कन्या राजऋद्धि सहित इन्द्रपुरी नगरी पहुँची तथा राजा से निवेदन करने लगी कि तुम्हारा जो भी पुत्र राधावेध को बींधेगा, वही मुझसे शादी करेगा। परिणामतः, उचित स्थल पर राधावेध का बड़ा स्तम्भ लगाया गया। राजा ने अपने सभी पुत्रों को बुलाकर राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए राधावेध को साधने के लिए कहा। तब अपनी असमर्थता को जानते हुए श्रीमाली ने लज्जित होते हुए धनुष को उठाया और उसके ऊपर अति कठिनाई से बाण चढ़ाकर बिना लक्ष्य के ही बाण छोड़ दिया। वह बाण स्तम्भ से टकराकर टूट गया। इससे सब लोग गुप्त रूप से हंसने लगे। इस तरह कलारहित शेष इक्कीस राजपुत्रों ने भी जैसे-तैसे बाण फेंका, किन्तु एक भी लक्ष्य का भेदन नहीं कर पाया। इस कारण राजा निराश एवं लज्जित होकर शोक करने लगा। तब मन्त्री ने आकर कहा- “आपके एक अन्य पुत्र की भी परीक्षा ले लो।" राजा ने कहा"जिस प्रकार ये कार्य सिद्ध नहीं कर सके, उसी तरह वह भी ऐसा ही करेगा। फिर भी यदि तुम्हारा आग्रह है, तो उस पुत्र की योग्यता भी देख लेते हैं।" राजा ने कहा- "हे पुत्र! राधावेध कर मेरी इच्छा पूर्ण कर और इस राज कन्या से विवाह कर तथा राज्य को प्राप्त कर।" सुरेन्द्रदत्त ने उठकर अत्यन्त विनम्रता से राजा एवं गुरु को प्रणाम किया तथा योद्धा की मुद्रा बनाकर धनुष-दण्ड ग्रहणकर, तेल से भरे कुण्ड में प्रतिबिम्ब को देखा, जिससे वह स्थिर दृष्टिवाला बना और उसने शीघ्र राधा का वेधन कर दिया। राधावेधन से प्रसन्न हुई राजपुत्री ने उसके गले में वरमाला पहनाई। इससे राजा आनन्दित हुआ। सुरेन्द्रदत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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