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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 297 करना चाहिए। जिसने इन्द्रियों के विकार को रोका है, उसी ने पुण्य से मनुष्य - जन्म प्राप्त किया है, उसी का जीवन सफल है, इसलिए हे देवानुप्रिय ! तेरे ही हित की बात कहता हूँ कि तू भी ऐसा विशिष्ट वर्तन कर कि जिनसे तेरी इन्द्रियाँ निर्विकारी एवं आत्मरागी बनें। जो इन्द्रियजन्य सुख दिखाई देता है, वह सुख नहीं सुख की भ्रान्ति है, कर्मों की वृद्धि के लिए है। जो जीव शील एवं गुणरूपी दोनों पंख से रहित होता है, वह कटे पंखवाले पक्षी के समान संसाररूपी भयंकर गुफा से निकल नहीं पाता है। जैसे- भीषण गर्मी के तेज ताप से घबराकर पुरुष तुच्छ वृक्ष की अल्प छाया में ही सुख मान लेता है, वैसे ही इन्द्रियजन्य सुख को जानना चाहिए । ' 715 समाधिमरण का मुख्य लक्ष्य कषायजय : संवेगरंगशाला में चारों कषायों का विस्तृत विवेचन अठारह पापस्थानकों के अन्तर्गत किया गया है। कषायों का त्याग करना अत्यन्त दुष्कर होने से निर्यापक- आचार्य क्षपक से कहते हैं- हे सत्पुरुष! क्रोधादि कषायों के विपाक को जानकर कषायरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर। तीनों लोक में जो अत्यधिक विषम दुःख एवं जो श्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है, वह क्रमशः कषायों की वृद्धि एवं क्षय के कारण ही होता है। शत्रु, सिंह एवं व्याधि भी मुनि का जितना अपकार नहीं करते हैं, उससे ज्यादा अपकार क्रोध, आदि चार कषायरूपी शत्रु करते हैं। कषाययुक्त आत्मा जिनेश्वर परमात्मा के वचनों का भी अनादर करती है और अनन्तकाल तक संसार चक्र में परिभ्रमण करती रहती है। 716 डॉ. सागरमल जैन कषाय की परिभाषा करते हुए लिखते हैं- वे मनोवृत्तियाँ या मानसिक आवेग, जो हमारी आत्मा को कलुषित करते हैं, हमारे आत्मीय - सद्गुणों को कृश करते हैं, जिनसे आत्मा बन्धन में आती है और उससे संसार - परिभ्रमण, अर्थात् जन्म-मरण में वृद्धि होती है, उन्हें कषाय कहते हैं। 717 संवेगरंगशाला में भी कहा गया है कि राग-द्वेष के अधीन तथा कषायों से व्यामूढ़ बनी आत्मा जिन आज्ञा का पालन नहीं कर पाती है। ये कषाएं राग-द्वेषजन्य हैं। ' 1 7 18 विशेषावश्यकभाष्य में विभिन्न नयों या अपेक्षाओं के आधार पर राग-द्वेष से कषायों के सम्बन्ध की विस्तृत चर्चा की गई है। संग्रहनय की अपेक्षा से क्रोध और मान द्वेषरूप हैं; जबकि माया और लोभ रागरूप हैं, क्योंकि प्रथम दो में दूसरे की 715 संवेगरंगशाला, गाथा ८६८४-८६६६. 716 . संवेगरंगशाला, गाथा ७०२२-७०२६. 717 कषाय- एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ७. 718 संवेगरंगशाला, गाथा ७०२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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