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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 291 पाप - रहित, क्लेशरहित, राग-द्वेष से रहित, क्रियारहित तथा सर्व अपेक्षाओं से रहित हैं, वे तीन लोक में चूड़ामणि के समान हैं, इस तरह तीन लोक में वन्दनीय, सर्व सिद्ध भगवन्तों के गुणों की भी त्रिविध - त्रिविध रूप से सम्यक् अनुमोदना करना चाहिए। 694 जो स्वयं पाँच आचार का सम्यक् रूप से पालन करनेवाले हैं और सर्व भव्यजीवों को उन आचारों का सम्यक् उपदेश देनेवाले तथा उनका पालन कराने वाले हैं, ऐसे आचार्य के सर्व गुणों की भी तू सम्यक् प्रकार से अनुमोदना कर । संवेगरंगशाला में उपाध्यायों को रत्नों की पेटी के समान कहा गया है। जो अंग, उपांग और प्रकीर्णक, आदि जिनप्रणीत सूत्रों को स्वयं सूत्र - अर्थ एवं तदुभय रूप से पढ़नेवाले और दूसरों को पढ़ानेवाले हैं, ऐसे उपाध्याय के गुणों को, हे क्षपक मुनि! तू सदा त्रिविध - त्रिविध रूप से अनुमोदन कर । इसी प्रकार हे मुनि! चारित्र - चूड़ामणि, धीर, वीर, गम्भीर, गुणरूपी रत्नों के भण्डारस्वरूप जगत् के प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाले, ममत्वरहित, समचित्त, अप्रमत्त, अध्ययनशील, प्रशमरसी, एकलक्ष्य, परमार्थ- गवेषक, संसारदशा की निर्गुणता का विचार रखनेवाले साधुओं के गुणों का तू त्रिविध - त्रिविध रूप से अनुमोदन कर जिन धर्म के प्रति श्रद्धावान् जीव, अजीव, आदि नव पदार्थों को जानने में परम कुशल, देवादि द्वारा भी निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति क्षोभ, आदि को प्राप्त नहीं करने वाले और सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष के साधक गुणों का अति दृढ़ता से पालन करने वाले साधुओं का अनुमोदन कर। अन्य भी जो भद्रिक, परिणामी, अल्प- संसारी, लघुकर्मी, देव, मनुष्य अथवा तिर्यंच हैं, उन सर्वजीवों के मार्गानुसारी जीवन का तू सम्यक् अनुमोदन कर। इस प्रकार अरिहन्त, आदि के सद्गुणों का प्रतिक्षण सम्यक् रूप से स्मरण करते हुए तुझे अपने गुणों को शिथिल नहीं करना है, बल्कि उन गुणों की रक्षा करना है। इसी तरह सर्व गुणों का अनुमोदन करने से ही, हे सुविहित मुनि! तेरी आराधना सफल होगी । ' 695 697 आराधनाकुलक696 मिथ्यादुष्कृतकुलक 699 चतुःशरण आतुरप्रत्याख्यान , , 695 694 संवेगरंगशाला, गाथा ८५१२-८५२०. संवेगरंगशाला, गाथा ८४२१८५३६. आराधनाकुलक, गाथा ५,६. मिथ्यादुष्कृतकुलक, गाथा १-१२. 696 697 Jain Education International 700 " 698 " आत्मविशोधिकुलक कुशलानुबंधि-अध्ययन पर्यन्ताराधना 702 " " For Private & Personal Use Only 701 7 www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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