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________________ 290 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री लेने हेतु मनुष्य आदि का अपहरण किया हो, उन्हें बन्धन, वध, छेदन, भेदन, आदिरूप भयंकर कष्ट दिए हों, देवत्व में भी अन्य देवों से जबरदस्ती आज्ञा-पालन करवाई हो, तो नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवों से त्रिविध-त्रिविध रूप से क्षमायाचना कर। पांच महाव्रतों के प्रत्येक अतिचार का त्याग नहीं किया हो, जगत् के सूक्ष्म या बादर सर्वजीवों को इस जन्म या अन्य जन्मों में जो भी अल्पमात्र दुःख दिया हो, तो उन सभी की निन्दा कर। इस तरह सर्वपापों को सम्यक् रूप से जानकर दुःखों का सर्वथा नाश करने हेतु अरिहन्त, सिद्ध, गुरु एवं श्रीसंघ की साक्षी में उन सर्व की सर्वप्रकार से सम्यक् निन्दा फर, गर्दा कर और प्रतिक्रमण कर। आराधना में चित्त को रमानेवाले, संवेग की वृद्धिवाले हे क्षपकमुनि! समस्त पापों की शुद्धि के लिए मुख्य अंगभूत 'मिच्छामि दुक्कडं' शब्द भावपूर्वक बोल! पुनः-पुनः मिच्छामि दुक्कडं का उच्चारण कर और अन्त में पुनः मिच्छामि दुक्कडं बोलकर इन पापों को पुनः कभी नहीं करने का निश्चय कर। इस प्रकार अपने दुष्कृतों की आलोचना-निन्दा करके साधक सुकृत का अनुमोदन करे।692 सुकृत-अनुमोदना : संवेगरंगशाला के सुकृत अनुमोदना नामक तेरहवें द्वार में निर्यापक-आचार्य द्वारा क्षपकमुनि को सुकृतों की अनुमोदना करने का निर्देश दिया गया है। इसके अनुसार- जिस प्रकार रोगी पुरुष कुशल वैद्य के कथनानुसार पथ्य का सेवन करता है, उसी प्रकार मुनि भी भाव-आरोग्यता के लिए जिनेश्वर भगवान् ने जिन शुभक्रियाओं का कथन किया है, उनका आसेवन करे, उनकी सम्यक् अनुमोदना करे। जन्म से मति, श्रुत और अवधिज्ञानवाले, जन्मादि पंचकल्याणक के समय चार-निकाय के देवों द्वारा पूजे जानेवाले, सर्वोत्कृष्ट गुण एवं सर्वोत्तम पुण्यवाले, सर्वातिशयों से युक्त राग-द्वेष-मोहादि से रहित, लोकालोक-प्रकाशक, केवलज्ञानरूप लक्ष्मी से युक्त, आठ प्रतिहार्यों से सुशोभित, जन्म-जरा-मरणरहित शाश्वत-सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त करनेवाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिनेश्वर-भगवान् के गुणों की तू त्रिविध-त्रिविध रूप से सम्यक् अनुमोदना कर। ६३ इसी तरह सिद्ध परमात्मा के सभी गुणों का भी अनुमोदन कर, जैसे - वे समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धशिला के ऊपर शाश्वत रूप से रहने वाले हैं, उन्होंने अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश कर दिया है, वे सर्व दुःखों से रहित, 692 विंगरंगशाला, गाथा ८४६०-८४६७. 693 विगरंगशाला, गाथा ८४६६-८५११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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