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288 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
बन्धु है, जिनका कोई सखा नहीं है, उनका धर्म सखा है, उनका धर्म नाथ है, जिनका कोई नाथ नहीं है। अखिल जगत् में एकमात्र धर्म ही रक्षक है। 687
इससे यह फलित होता है कि इन सभी ग्रन्थों में धर्म के स्वरूप एवं उसकी आत्मविश्वास की शक्ति का विचार करना ही धर्म - भावना है, इन सब ग्रन्थों में धर्म के वास्तविक स्वरूप का विचार कर उसके पालन करने का ही उल्लेख है, जबकि संवेगरंगशाला में धर्मार्थी एवं धर्म प्रदान करनेवाले धर्माचार्य की दुर्लभता का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस प्रकार इस भावना के स्वरूप के सम्बन्ध में संवेगरंगशाला का अन्य ग्रन्थों से अन्तर है।
संवेगरंगशाला में अन्त में यह बताया गया है कि इस दुष्कर संसाररूपी दीवार को तोड़ने के लिए, बारह भावनाओंरूपी हाथी की सेना समर्थ है। वैराग्य के उत्कर्ष हेतु इन भावनाओं का चित्त में बार-बार चिन्तन करना चाहिए। जिस प्रकार सूर्योदय के होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जैसे-जैसे व्यक्ति में वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे-वैसे कर्म क्षय होते हैं। जैसे- अग्नि के सम्पर्क से मोम पिघल जाता है, वैसे प्रतिसमय पूर्ण सद्भावपूर्वक भावनाओं के चिन्तन से भव्यात्मा के चिरसंचित कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, फिर वे नवीन कर्म का बन्ध नहीं करते हैं। इस तरह हे जीव ! तू भी इन बारह भावनाओं का प्रतिसमय चिन्तन कर तथा शुभध्यान के द्वारा अपने प्रचण्ड अशुभ कर्मों का क्षय
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कर।
दुष्कृत - ग :
संवेगरंगशाला में निर्यापक आचार्य के द्वारा क्षपक को चार शरण स्वीकार करवाने के पश्चात् पूर्वकृत कर्मों के भावी कटु विपाक को रोकने के लिए दुष्कृत्य की गर्हा, अर्थात् पूर्व में किए गए पापों की निन्दा करने का निर्देश किया गया है। निर्यापक- आचार्य क्षपकमुनि से कहते हैं- हे मुनि! तुने यदि अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु-साध्वी के विषय में वन्दन, पूजन, सत्कार, सम्मान, आदि करने योग्य कार्य नहीं किए हों, माता, पिता, बन्धु, मित्र एवं उपकारियों के विषय में मन-वचन-काया से किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार किया हो, तो उन सबकी त्रिविध-त्रिविध गर्हा कर । पुनः, आठ मदस्थानों तथा अठारह पापस्थानकों में कभी कोई प्रवृत्ति की हो, क्रोधादि कषायों के वश होकर कोई छोटा-बड़ा पाप किया हो, राग-द्वेष, अज्ञानता, अविवेक के वशीभूत होकर इहलोक या परलोक में
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भगवती आराधना गाथा, १८५२. संवेगरंगशाला, गाथा ८६२६-८६३१.
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