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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 287
करानेवाला हो, मध्यस्थ हो, कृतकरण हो, ग्राहणकुशल हो, जीवों के उपकार करने में रक्त हो, दृढ़ प्रतिज्ञावाला हो, अनुवर्तक हो और बुद्धिमान् हो; ऐसे आचार्य को ही जिनकथित धर्मोपदेश देने का अधिकार है।683
संवेगरंगशाला में ज्ञानियों ने उसी धर्मगुरु की प्रशंसा की है, जो पृथ्वी के सदृश सर्वभार सहन करनेवाला हो, मेरु के तुल्य धर्म में स्थिर हो और चन्द्र सम सौम्यलेश्यावाला हो, वही धर्मगुरु प्रशंसनीय है तथा देश-काल का जानकार हो, लौकिक, वैदिक लोकोत्तर, अन्यान्य शास्त्रों में पारंगत हो, वही धर्मगुरू. प्रशंसा करने योग्य है; किन्तु ऐसे जिनकथित निर्ग्रन्थ प्रवचन (संसार से मुक्त होने के मार्ग) को जाननेवाले धर्मगुरु का मिलना दुर्लभ है। जिस प्रकार एक दीपक से सैंकड़ों दीपक प्रज्वलित होते हैं और प्रदेश को प्रकाशित करते हैं, उसी तरह दीपक के समान ही धर्मगुरु भी स्व और पर को प्रकाशित करते हैं। संवेगरंगशाला में ऐसे गुरु की प्राप्ति को भी दुर्लभ बताया गया है।
उत्तराध्यनसूत्र में भी धर्म की शरण को ही उत्तम शरण कहते हुए कहा है कि संसार में धर्म ही शरण है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई रक्षक नहीं है। जरा-मृत्यु के प्रवाह के वेग में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप ही उत्तम स्थान और शरणरूप है।685
आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में धर्म को उत्तम फल प्रदान करनेवाला कहा है, जो इस प्रकार है- "कल्पवृक्ष संकल्प करने पर अथवा मांगने पर मनोकामनाएँ पूर्ण करता है, चिन्तामणि चिन्तन करने पर फल प्रदान करती है, किन्तु धर्म से बिना मांगे ही उत्तम फल की प्राप्ति होती है।"686 भगवतीआराधना के अनुसार धर्म में श्रद्धा करने पर, धर्म को सुनने पर, धर्म को जानने पर, धर्म का स्मरण करने पर फल की प्राप्ति होती है तथा धर्म का पालन करने पर मन को शान्ति मिलती है। धर्म से मनुष्य पूज्य होता है, सबका विश्वासपात्र होता है, सबका प्रिय होता है और यशस्वी होता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार दुर्गति में गिरते हुए जीवों को जो धारण करता है, बचाता है, वह धर्म है। सर्वज्ञ के द्वारा कथित क्षमा, आदि के भेद से जो दस प्रकार के धर्म बताए गए हैं, वे ही मोक्ष की प्राप्ति कराने में समर्थ हैं। जिनका संसार में कोई बन्धु नहीं है, उनका धर्म
683 संवेगरंगशाला, गाथा क्र. ८६०२-८६०३ 684 संविंगरंगशाला, गाथा क्र. ८६१४-८६२५.
उत्तराध्ययन १४/४०, २३/६३. आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासन, छन्द २२.
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