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________________ 264 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री साधक को भावों की शुद्धि करने के लिए पुरुषार्थ करने को कहा है। भावनारहित कार्य को निष्फल बताया गया है, जैसे- अभिनव सेठ का भावनारहित दान एवं कण्डरिक की भावनारहित कठिन तपस्या एवं अखण्ड शील का पालन निष्फल गया, इसके विपरीत बलदेव को पारणा कराने की भावना से हरिण ने जो दान की प्रेरणा दी तथा भगवान् महावीर को पारणा कराने की भावना से जिरण सेठ ने महापुण्य प्राप्त किया तथा शील और तप के अभाव में भी केवल शुद्ध परिणामों से मरुदेवा माता सिद्ध हुई। इसी प्रकार अल्प तप एवं शील का पालन करनेवाले अवन्तिकुमार ने भी शुभभावना से देव-पद प्राप्त किया। आगे यहाँ बताया गया है कि दान में धन की अपेक्षा होती है और तप एवं शील में संघयण की, किन्तु भावना तो शुभ चित्त से ही प्रकट होती है। इसमें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती है। अतः भावों को शुद्ध करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।587 "कहा भी गया है चाहे कोई व्यक्ति विपुल सम्पत्ति दान करे, चाहे समग्र जिन-प्रवचन को कण्ठस्थ कर ले, चाहे उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक मुनिधर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में शुभ भावों की उद्भावना नहीं होती है, तो उसकी समस्त क्रियाएं उसी प्रकार निष्फल हैं, जिस प्रकार से धान्य के छिलके का बोना निष्फल है।"588 "संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जिस प्रकार दानादि में वस्तुओं की अपेक्षा रहती है, उसी प्रकार भावना में भी बाहय कारणों या निमित्तों की अपेक्षा रहती है। उद्विग्न मनवाला व्यक्ति अपेक्षित सामग्री के बिना शुभध्यान में समर्थ नहीं होता है, किन्तु यह कथन मन का निरोध करने में असमर्थ मुनि की अपेक्षा से ही सत्य है। जिसने कषायों पर विजय प्राप्त कर ली हो, तथा जिसने मन के आवेगों को रोक लिया हो, उन्हें समाधि हेतु बाह्य-कारणों की अपेक्षा नहीं होती है। यहाँ स्कन्दकमुनि के शिष्यों का दृष्टान्त देते हुए समझाया गया है कि दूसरों के द्वारा शरीर को अत्यधिक पीड़ा देने पर भी कषायों से मुक्त बनें वे शिष्य अपने शुभध्यान से जरा भी चलायमान नहीं हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि शुभध्यान या शुभ भावनाओं के लिए बाय-निमित्त से कोई प्रयोजन नहीं है।589 "आचार्य कुन्दकुन्द ने भावप्राभृत में कहा है कि व्यक्ति चाहे श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही उसके विकास में कारणभूत होता है। भावरहित श्रवण एवं 587 संवेगरंगशाला, गाथा ८५४१-८५५०. 588 सूक्तिसंग्रह - ४१. 589 संवेगरंगशाला, गाथा ८५५३-८५५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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