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250 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
इससे यह फलित होता है कि जिस प्रकार लज्जावश युवराज ने अपने प्राणों को खोया, उसी प्रकार आलोचना करते समय लज्जा रखने से साधक असंयम में वृद्धि करता हुआ अपने संयम को खो देता है।565
५. आलोचना के गुण :- स्वयं के दोषों की आलोचना करने से साधक को आठ गुण प्रकट होते हैं। वे अनुक्रम से इस प्रकार कहे गए हैं :
१. लघुता २. प्रसन्नता ३. स्व-परदोष-निवृत्ति ४. माया का त्याग ५. आत्मा की शुद्धि ६. दुष्कर-क्रिया ७. विनय की प्राप्ति एवं ८. निःशल्यता। जो साधक सरल हृदय से अपराधों को प्रकट करता है, वह उपर्युक्त इन आठ गुणों को प्राप्त करता है।
१. लघुता :- जब व्यक्ति अपने कर्मों के समूह से इतना भारी हो जाता है कि उस भार से थका हुआ शिवपुरी जाने में असमर्थ हो जाता है, तब वह संक्लेश को छोड़कर शुद्ध भाव से आलोचना करके कर्मबन्ध के महान् भार को हल्का करता है। इस तरह मोक्ष का कारणभूत चारित्र गुण की अपेक्षा द्वारा परमार्थ से महान् कमों की लघुता प्राप्त करता है।
२. प्रसन्नता :- मुनि जैसे-जैसे अपने अपराधों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है, वैसे-वैसे उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। वह विचार करता है कि मैं धन्य हूं कि मुझे अति दुर्लभ उत्तम वैद्यरूप निर्यापक-आचार्य प्राप्त हुए हैं, अतः लज्जा, भयादि को छोड़कर शुद्ध भाव से आलोचना करूं एवं संसार के दुःखों को नष्ट करने हेतु अनशन, तप, आदि स्वीकार करूँ- इस तरह वह प्रसन्नता व्यक्त करता है कि शुभभावपूर्वक आलोचना करके वह अपनी आत्मा को शुद्ध कर सकता है।
३. स्व-परदोष-निवृत्ति :- उत्तम गुणों से युक्त आचार्य के सानिध्य में रहने से उनके भय से एवं लज्जा के वशीभूत होकर शिष्य दुष्कृत्य करने से बचता है, क्योंकि एक मुनि को चारित्रवान् देखकर अन्य मुनिजन भी पाप के भय से अकार्य करने से भयभीत होते हैं। इस तरह अपने और दूसरे के दोषों की निवृत्ति होने से स्व-पर का उपकार होता है, क्योंकि स्व-पर के कल्याण से महान् दूसरा कोई उपकार नहीं है।
४-५. माया त्याग एवं आत्मशुद्धि :- मायाचार (कपट) से रहित, शुद्ध भावों से आलोचना करने से संसार का भय नष्ट होता है, एवं जीव परम निवृत्ति
565 संवेगरंगशाला, गाथा ४६४५-४६५३.
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