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________________ 248 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री प्रकार सशल्य आत्मा बाहर से निर्दोष एवं भीतर से सदोष, अर्थात् काले परिणामोंवाली होती है। ५. सूक्ष्म - दोष :- इसमें शिष्य ( साधक) केवल छोटे-दोषों की आलोचना करता है, अर्थात् भय, माया, अभिमान, आदि से जो केवल सूक्ष्म (सामान्य) दोष हैं, उन दोषों की आलोचना करता है, लेकिन स्थूल दोषों को गुप्त रखता है। ऐसे आलोचना के पाँचवें दोष को पीतल पर सोने का झोल चढ़ाने के समान कहा गया है। उपर्युक्त दोनों दोषों में यह विचारधारा रही होती है कि जो बड़े-से-बड़े दोषों की आलोचना कर सकता है, वह छोटे दोषों की आलोचना क्यों न करेगा? यहाँ बड़े या छोटे दोषों की आलोचना कर बड़े दोषों को छिपाने की भावना रहती है। । इस तरह यह मन में धूर्तता रखकर आलोचना करना है। 563 ६. छन्न-दोष :- किसी साधक के पँच महाव्रत में से कोई भी व्रत के खण्डित होने पर उसे जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसे जानकर आचार्य के समक्ष आलोचना लिए बिना ही वह स्वयं उस प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार वह लज्जा का प्रदर्शन करता है और एकान्त स्थान में ले जाकर इतने धीरे और अस्पष्ट शब्दों में आलोचना करता है कि जिससे प्रायश्चित्त देनेवाले एवं अन्य सुन न सकें । जो दोषों को कहे बिना शुद्धि की इच्छा रखता हो, उसे मरीचिका के जल के आभास के समान जानना चाहिए। जैसे उस ( मृग ) की इच्छा पूर्ण नहीं होती है, वैसे ही अपने दोषों को कहे बिना आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती है। 19. संद्दउलयं या शब्दाकुलित-दोष :- इस दोष में साधक पाक्षिक, आदि प्रतिक्रमण के समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में अपने दोषों को इस तरह से कहता है कि जिससे किसी को सुनाई नहीं दे। इस दोष को फूटे घड़े के समान कहा है। जैसे फूटे घड़े में पानी नहीं टिकता है, वैसे ही आलोचना का फल उसे प्राप्त नहीं होता है। स्थानांगसूत्र के अनुसार इस दोष में उच्च स्वर से बोलकर आलोचना करना, जिससे कि दूसरे अगीतार्थ साधु सुन लें- ऐसा उल्लेख है। ८. बहुजन दोष :फिर शंकाशील हो, उसी दोष की 563 संवेगरंगशाला, गाथा ४६१२-४६२६. इसमें साधक गुरु के पास आलोचना करके, अन्य अनेक आचार्यों के पास जाकर आलोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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