SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री पुनः, ग्यारहवें वर्ष के अन्तिम छः मास में विकृष्ट- -तप करते हुए आयंबिल से पारणा करे- ऐसा निर्देश है। अन्तिम बारहवें वर्ष में प्रथम छः मास में कोटिसहित आयंबिल तप करे, फिर बारहवें वर्ष के अन्तिम चार अथवा पाँच महीने तक आयंबिल करते हुए भी तेल, आदि मुंह में भरकर कुल्ला करता रहे। यहाँ उत्तराध्ययनसूत्र और संवेगरंगशाला में हमें अन्तर परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन में तेलादि से कुल्ले करने का कोई उल्लेख नहीं है, उसमें केवल इतना ही उल्लेख है कि बारहवे वर्ष में कोटिसहित आयंबिल करे और अन्त में एक पक्ष या मास का अनशन करे। संलेखना के मध्यम प्रकार को लेकर भी उत्तराध्ययनसूत्र और संवेगरंगशाला में अन्तर परिलक्षित होता है। संवेगरंगशाला में मध्यम संलेखना का कोई उल्लेख नहीं है, जबकि उत्तराध्ययनसूत्र में मध्यम संलेखना एक वर्ष की बताई गई है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में जघन्य संलेखना छः मास की बताई गई है। संवेगरंगशाला में छः मास, चार मास, आदि की जघन्य संलेखना का उल्लेख है । यद्यपि सैद्धान्तिक - दृष्टि से दोनों ग्रन्थों में संलेखना के प्रकारों की चर्चा में कोई विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु विधि को लेकर दोनों में जो आंशिक अन्तर है, उसका हमने यहाँ निर्देश कर दिया है। संवेगरंगशाला में भाव - संलेखना के विवेचन में कहा है कि स्व-स्व विषयों में आसक्त इन्द्रियों, कषायों और योगों (मानसिक, वाचिक और कायिक) की गतिविधियों के निग्रह को भाव-संलेखना कहते हैं। इस प्रकार द्रव्य और भाव - संलेखना की चर्चा करके जिनचन्द्रसूरि ने आगे संलेखना विधि की चर्चा करते हुए उसके अन्तर्गत- १. अनशन २. उणोदरिका ३. वृत्ति-संक्षेप ४. रस- त्याग ५. कायक्लेश ६. संलीनता आदि छः प्रकार के तप करने का उल्लेख किया है । ' वस्तुतः, संलेखना तप की आराधना ही है, इसलिए यहाँ संलेखना विधि की चर्चा के अन्तर्गत तपों की चर्चा की गई है। इस प्रसंग में यह ज्ञातव्य है कि जिनचन्द्रसूरि ने यहाँ मात्र छः प्रकार के बाहूय - तपों का ही उल्लेख किया है। इन बाहूय- तपों की विस्तृत विवेचना हम दूसरे अध्याय में मुनि-जीवन की सामान्य आराधना के प्रसंग में कर चुके हैं, अतः यहाँ मात्र नाम-निर्देश किया है। 535 बाहूयतपों से शरीर कृश होता है, शरीर के कृश होने से कषाय कृश होते हैं, इसलिए कहा गया है कि तपस्या से व्यक्ति के कषाय इतने निर्बल हो जाते हैं कि बाह्य - निमित्तों के द्वारा कषायों को जाग्रत करने का अवसर होने पर भी उनमें कषाय प्रकट नहीं होते हैं। कषायों का निग्रह करने से होनेवाले लाभ का 535 संवेगरंगशाला, गाथा ४०१७-४०१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy