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________________ 206 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री इस तरह संघ के आचार्य, अथवा रत्नाधिक प्रसिद्ध साधुओं, अथवा अन्य साधु के स्वजन या जाति-कुल वाले साधु का स्वर्गवास होने पर उस दिन अवश्यमेव उपवास करना चाहिए तथा स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। दूसरे संघ के मुनि अथवा कुष्ठ, आदि के रोगी मुनि का मरण होने पर उपवास नहीं करना चाहिए। अन्य स्थान पर ऐसा भी लिखा मिलता है कि दूसरे गण के साधु का मरण होने पर 'ण सज्झाए परगणत्थे, ' अर्थात् स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, किन्तु उपवास कर भी सकते है और नहीं भी करते हैं। 469 आगे क्षपक की गति अच्छी हुई या बुरी इसे जानने के लिए सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ स्थविर दूसरे दिन प्रातःकाल उस क्षपक के मृत शरीर को देखने जाते हैं। यदि मृतक के शरीर को किसी मांसाहारी पशु-पक्षी ने वृक्ष या पर्वत के शिखर पर डाल दिया हो, अथवा मृतक के अंग पर्वत के शिखर पर दिखाई देते हों, तो वह क्षपक मुक्ति को प्राप्त हुआ है- ऐसा जानना चाहिए । यदि मृतक का मस्तक, आदि अंग किसी ऊँची (उन्नत) भूमि पर पड़ा दिखाई दे, तो वह मरकर वैमानिक -देव बना है - ऐसा जानना चाहिए । यदि शव समभूमि में दिखाई दे, तो वह ज्योतिष-देव अथवा वाणव्यन्तर- देव हुआ - ऐसा जानना चाहिए तथा किसी खाई या गड्ढे में गिरा हुआ दिखाई दे, तो वह भवनवासी- देव हुआ- ऐसा जानना चाहिए। ४७० अन्त में आचार्य जिनचन्द्रसूरि मृतक के अखण्ड पड़े रहने से गाँव की स्थिति का निरूपण करते हुए कहते हैं - जितने दिनों तक वह मृत शरीर गीदड, आदि से अस्पर्शित एवं सुरक्षित रहता है, उतने वर्षों तक उस राज्य में सुभिक्ष, यानी सुकाल व शान्ति रहती है। माँसाहारी श्वापद, आदि द्वारा मृत देह को जिस दिशा में ले जाया गया हो, उस दिशा में क्षेत्र - कुशल, सुकाल जानकर संघ को उस दिशा में विहार करना चाहिए। उस दिशा में विहार करने से संघ पर विघ्न उत्पन्न नहीं होते हैं तथा मुनिजन सुख - सातापूर्वक अन्य स्थान पर पहुँचते हैं। 471 आराधनापताका472 एवं भगवती आराधना +7 3 के विजहणाद्वार में भी मृतक के देह-विसर्जन के सम्बन्ध में यही विधि समान रूप से उपलब्ध होती है। 469 संवेगरंगशाला, गाथा ६८२६ - ६८२६. 470 'संवेगरंगशालाशाला, गाथा ६८३० - ६८३१. 471 संवेगरंगशाला, गाथा ६८३२-६८३३. 472 आराधनापताका, गाथा ८६५-६६३ 473 भगवती आराधना, गाथा १६६१-१६६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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