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________________ 192 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री गमन सम्भव नहीं हो, उस एकान्त वसति में साधु ( क्षपक) को मन-वचन एवं काया को गुप्त करके सुखपूर्वक निवास करना चाहिए। संवेगरंगशाला में योग्य वसति का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार कहते हैंजो वसति उद्गम, उत्पादन और एषणा दोष से रहित हो, मुनि या क्षपक के उद्देश्य से जिसमें लिपाई पुताई आदि नहीं कराई गई हो, जिसमें स्त्री, नपुंसक, पशु, आदि प्राणी वास नहीं करते हों, उस वसति में सांधु निवास करे, साथ ही जिसकी दीवार मजबूत हो, जिसमें दरवाजे हों, जो गाँव के बाहर ऐसे स्थान पर हो, जहाँ बाल, वृद्ध, आदि चतुर्विध संघ का आवागमन सरल हो- ऐसी वसति में, उद्यान में, पर्वत की गुफा में अथवा शून्य घर में क्षपक का निवास होता है । जिसमें बिना कष्ट के सुखपूर्वक प्रवेश और निर्गमन होता हो, जिसका द्वार खुला न हो, जिसमें अन्धकार न हो- ऐसी दो या तीन वसति को ग्रहण करना चाहिए। इनमें से एक वसति क्षपक के लिए रखें, दूसरी वसति अन्य मुनि एवं धर्म सुनने के लिए शहर से आए अतिथियों के लिए रखें। अन्य साधु आहार ग्रहण कर रहे हों, तो क्षपक को उसकी गन्ध, आदि से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न न हो जाए, इस कारण क्षपक की वसति अलग होना चाहिए, साथ ही सामान्य बाल, आदि साधुओं (अपरिणत) को भी क्षपक की वसति में आने नहीं देना चाहिए। 43: यहाँ प्रश्न उठता है कि सामान्य साधुओं को पास नहीं आने देने का क्या कारण है? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है- सामान्य मुनि को समीप नहीं रखने का मुख्य कारण यह है कि किसी समय क्षपक को असमाधि उत्पन्न हो जाए, तो उसको अशन, आदि देते देखकर मुग्ध साधु को क्षपकमुनि के प्रति अश्रद्धा हो जाती है, साथ ही क्षपक को भी आहार आदि देखकर सहसा आहार के प्रति आसक्ति प्रकट हो सकती है। ऐसी स्थिति में आराधनारूप महासमुद्र के किनारे पर पहुँचे हुए तपस्वी की चारित्ररूपी नौका पर किस समय विघ्न आ जाए, उससे आराधना की सुरक्षा लिए यह सावधानी रखना होती है। आचारांग 434 एवं वृहत्कल्पभाष्य 35 में नौ प्रकार की शय्याओं का विस्तार से निरूपण है। वे नौ प्रकार की शय्याएं इस प्रकार हैं : : 432 संवेगरंगशाला, गाथा ५२५५-५२५६. 433 संवेगरंगशाला, गाथा ५२६०-५२६४. 434 435 आचारांगसूत्र - २/२/२. बृहत्कल्पमाष्य. - उद्धृत आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध ( मधुकरमुनि), पृ. १४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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