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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 191 ही अग्नि- कण ईंधन के वृहत् समूह को जलाने में समर्थ होता है, वैसे ही एक ही पण्डितमरण अनेक भवों के पापों को नाश करने में समर्थ होता है । 429 अन्त में ग्रन्थकार ने यह प्रतिपादित किया है कि इस जगत् में चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष के द्वारा भी जिसकी प्राप्ति दुःसाध्य है, उसे प्राप्त कराने में पण्डितमरण समर्थ है। चूँकि एक पण्डितमरण अनादिकाल की जन्म-मरण की "परम्परा को समाप्त कर देता है, इसलिए प्रत्येक साधक को पण्डितमरण को प्राप्त करना चाहिए । पण्डितमरण से व्यक्ति मुक्त होकर अजर-अमर बन जाता है। जिनको बार-बार मृत्यु से भय लगता है, उन्हें पण्डितमरण से ही मृत्यु को प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि इससे मृत्यु का ही नाश हो जाता है। इसीलिए धीर-वीर पुरुष पण्डितमरण के द्वारा सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । 430 समाधिमरण ग्रहण करने योग्य स्थल : संवेगरंगशाला में शय्या को वसति, अर्थात् आवास - स्थल कहा गया है। समाधिमरण की आराधना में आराधक के लिए कौन-सी वसति अयोग्य है एवं कौन-सी योग्य है, उसका निरूपण किया गया है। प्रथम अयोग्य वसति का कथन करते हुए कहा है कि आराधक के समीप कठोर (दुष्ट) कर्म करनेवालों की वसति नहीं होना चाहिए, जैसे चोरी करनेवाले, वेश्यागमन करनेवाले, मछली पकड़नेवाले, शिकार खेलनेवाले, प्राणीवध करनेवाले, असभ्य वचन कहनेवाले, नपुसंक एवं व्यभिचारी, आदि के समीप का स्थान ( वसति) क्षपक के आराधना योग्य नहीं है। ऐसी वसति में रहने से समाधि में व्याघात होता है । इन्द्रियों के मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ शब्द, रूप-रस आदि विषयों के सम्बन्ध से तथा कोलाहल से ध्यान में विघ्न होता है, इसलिए आराधक के लिए उपर्युक्त वसति का निषेध किया है 1 431 साथ ही कहा गया है कि जब तिर्यंच जीवों को भी शुभ एवं अशुभ संसर्गवश गुण एवं दोष प्रकट होते हैं, तो तप से कृशकायवाले एवं अनेक परीषहों, उपसर्गों को सहन करते हुए अनशन में उद्यमशील बने मुनि को कुत्सित संसर्ग से ध्यान में विघ्न उत्पन्न होता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, इसलिए जहाँ मन को सक्षोभ उत्पन्न करनेवाले पाँचों इन्द्रियों के विषयों में उत्सुकतापूर्वक 429 संवेगरंगशाला, गाथा ३७२०-३७३५. 430 संवेगरंगशाला, गाथा ३७३६-३७४३. संवेगरंगशाला, गाथा ५२२८-५२३१. 431 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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