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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 185
आहार आदि का त्याग करके देहत्याग करना, निरुद्धतर-भक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है।
५. परम निरुद्धतर :- रोगादि अथवा अनायास मरण या अन्य निमित्त उपस्थित हो जाने से जब साधक की वाणी भी बन्द हो जाए, अर्थात् वह बोलने में असमर्थ हो जाए, तब उसी समय मन से ही चारों शरण को स्वीकार कर सर्व साधुओं से क्षमायाचनापूर्वक आत्म-आलोचना करके, चारों आहार का त्याग करके, शरीर छोड़. देना परम निरुद्धतर-भक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है। 17
भक्तपरिज्ञामरण अथवा भक्तप्रत्याख्यानमरण का संक्षिप्त विवरण भगवतीआराधना98, स्थानांगसूत्र ११, समवायांगसूत्र400 जैसे आगमों में मिलता है। इसकी विधि, स्वरूप एवं भेदों का विशेष विवेचन 'भक्तपरिज्ञा'401 प्रकीर्णक में तथा वीरभद्राचार्यकृत 'आराधनापताका' 402 में मिलता है। भक्तप्रत्याख्यान का अर्थ है-आहार का त्याग करना। इस प्रकार आहार का त्याग करके जो मरण ग्रहण किया जाता है, उसे भक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र, 403 भक्तपरिज्ञा, 404 आराधनापताका एवं भगवतीआराधना 405 में भी भक्तपरिज्ञामरण के उपर्युक्त दो भेद किए गए हैं - सविचार और अविचार। “समय रहते हुए विधिपूर्वक जो भक्तपरिज्ञामरण ग्रहण किया जाता है, उसे सविचारभक्तपरिज्ञामरण कहा जाता है तथा तत्काल मृत्यु की सम्भावना होने पर बिना शरीर-संलेखना-विधि से जो भक्तपरिज्ञामरण ग्रहण किया जाता है, वह अविचारभक्तपरिज्ञामरण है।"
“वीरभद्राचार्य ने आराधना-पताका में सविचार भक्तपरिज्ञामरण के चार द्वार निरूपित किए हैं - १. परिकर्मविधि-द्वार २. गणसंक्रमण-द्वार ३. ममत्वव्युच्छेद-द्वार और ४. समाधिलाभ-द्वार। पुनः, परिकर्मविधि-द्वार के ग्यारह, गणसंक्रमण-द्वार के दस, ममत्वव्युच्छेद-द्वार के दस और समाधिलाभ-द्वार के आठ
397 संवेगरंगशाला, गाथा ३५५५-३५६२. 398 भगवतीआराधना, पृ. ६४. 399 स्थानांगसूत्र १,२/४४, १७/४८ 400 समवायांगसूत्र, पृ. १७/६. (आ.तु.) 401 भक्तपरिज्ञा - १०-११. 402 सम्पूर्ण विवरण के लिए दृष्टव्य, आराधनापताका (वीरभद्र)
उत्तराध्ययनसूत्र ३०/१२. भक्तपरिज्ञा-प्रकीर्णक, गाथा १०/११. भगवतीआराधना, पृ. ६४.
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