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________________ 184 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री ग्रहण करनेवालों को शरीर की सेवा-शुश्रूषादि करने की छूट होती है। इस भक्तपरिज्ञामरण के सविचार और अविचार- इस प्रकार दो भेद हैं, इनकी चर्चा आगे विस्तार से की गई है। 89 संवेगरंगशाला में भक्तपरिज्ञामरण के सम्बन्ध में जो विवेचन किया गया है, वही विवेचन समवायांगसूत्र 390, आचारांगसूत्र 391 , स्थानांगसूत्र 392 , उत्तराध्ययनसूत्र 393, समाधिमरणोत्साहदीपक 394, भगवतीआराधना35, आदि अनेक ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। सविचारभक्तपरिज्ञामरण उसे कहते हैं, जिसमें व्यक्ति विचारपूर्वक निश्चय करके क्रमशः आहारादि का त्याग करते हुए देहत्याग करता है। अविचार भक्तपरिज्ञामरण किसी आकस्मिक विपदा के कारण जिस मुनि को आहारादि के क्रमशः त्याग करने का समय न हो उस स्थिति में होता है, अर्थात् अनायास मरण के उपस्थित हो जाने पर व्यक्ति अविचारभक्तपरिज्ञामरण स्वीकार कर सकता है। संवेगरंगशाला में अविचारभक्तपरिज्ञामरण को निम्न तीन भागों में विभक्त किया गया है - प्रथम निरुद्ध, दूसरा निरुद्धतर और तीसरा परम निरुद्धतर।396 ३. निरुद्ध :- इसमें निरुद्ध के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा गया है कि तत्काल मरण का कारण उपस्थित हो जाने पर, अर्थात् असाध्य रोग, आदि के होने पर अपने ही संघ में रहकर तथा दूसरों की सहायता से आराधना करते हुए देहत्याग करना, निरुद्ध-भक्तपरिज्ञामरण कहलाता है। यह मरण भी प्रकाश और अप्रकाश-इस तरह दो प्रकार का है। ४. निरुद्धतर :- संवेगरंगशाला के अनुसार सर्प, अग्नि, सिंह, आदि के निमित्त से तत्काल आयुष्य को समाप्त होता हुआ जानकर मुनि को जब तक वाणी बन्द नहीं हुई हो और चित्त व्यथित नहीं हुआ हो, तब तक समीपस्थ आचार्य, आदि के समक्ष सम्यक् रूप से अतिचारों की आलोचना करना और फिर 389 संवेगरंगशाला, गाथा ३५५०-३५५२. समवायांगसूत्र, पृ. १७/६. (आ.तु.) आचारांगसूत्र, अध्याय-८, पृ. स्थानांगसूत्र, (आचार्य तुलसी) ,२/४१, १७/८ उत्तराध्ययननियुक्ति, अध्याय-५, पृ. २३७-३८ 394 समाधिमरणोत्साहदीपक, पृ. ६. 395 भगवतीआराधना, पृ. ६५. 396 संवेगरंगशाला, गाथा ३५५२-३५५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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