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________________ 168 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री ७. यन्त्रद्वार :- जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला में यन्त्र का प्रयोग किस प्रकार करें, उसका विवेचन करते हुए यह कहा है- “सर्वप्रथम व्याक्षेपों से रहित ( शान्त चित्तवाला) होकर अन्य औपचारिक - विधि करके फिर षट्कोण यन्त्र बनाएं, उसके मध्य में ऊँकार सहित उस व्यक्ति का नाम लिखें। फिर यन्त्र के चारों कोणों में अग्नि की ज्वाला, अर्थात् "रकार" की स्थापना करें। उसके पश्चात् यन्त्र के बाहरी छः कोण में छः (बार) स्वस्तिक बनाएं। फिर अनुस्वारसहित अकार आदि - अं, आं इं ईं उं ऊं- इन छः स्वरों से बाल-भागों को धेरें । स्वस्तिक एवं स्वर के बीच-बीच में छः बार 'स्वाह" शब्द लिखें। पुनः चारों ओर विसर्गसहित “यकार" की स्थापना करें। उस यकार के चारों बाजू “पायु” के पुर से आवृत्त (संलग्न ) चार रेखाएँ खींचें। इस तरह मन में ऐसे यन्त्र की कल्पना करें, अथवा ऐसा यन्त्र बनाकर पैर, हृदय, मस्तक और संधियों में स्थापन करें। 324 इसमें आगे यह प्रतिपादित किया गया है कि “स्व अथवा पर के आयुष्य का निर्णय करने के लिए सूर्योदय के समय पूर्व दिशा में पृष्ठभाग एवं पश्चिम में मुख रखकर अपनी परछाई का अवलोकन करे। यदि परछाई पूर्ण दिखाई दे, तो व्यक्ति को एक वर्ष तक मृत्यु का भय नहीं होगा, यदि कान नहीं दिखे, तो वह बारह वर्ष तक जीवित रहेगा, हाथ नहीं दिखे, तो दस वर्ष तक, अंगुलियाँ न दिखे, तो आठ वर्ष तक, कन्धा न दिखे, तो सात वर्ष तक, केशराशि न दिखे, तो पाँच वर्ष तक, पार्श्वभाग न दिखे, तो तीन वर्ष तक और नाक न दिखे, तो एक वर्ष तक जीवित रहेगा। इसी प्रकार यदि मस्तक न दिखे, तो छः महीने तक, गर्दन न दिखे, तो एक मास तक आँखें नहीं दिखें, तो ग्यारह दिन तक और हृदय में छिद्र दिखाई दे, तो सात दिन तक मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है”- ऐसा जानना चाहिए। 325 अन्त में, इसमें यह निरूपित किया गया है कि यदि दो छाया दिखाई दें, तो मृत्यु को अत्यन्त नजदीक जानना चाहिए । यही बात " योगशास्त्र के यन्त्रद्वार में काल के सम्बन्ध में कही गई है। 326 इससे यह फलित होता है कि संवेगरंगशाला के अनुसार पुरुष अपनी आयुष्य का काल यन्त्र के प्रयोग से भलीभांति जान सकता है। 324 325 326 संवेगरंगशाला, गाथा ३३००-३३०३. संवेगरंगशाला, गाथा ३३०४-३३०६. योगशास्त्र पंचमप्रकाश, २०८-२१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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